श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः ।
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः ।।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं ।
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि ।।
काशी की अनसुनी कहानी के सभी पाठकगण को सादर प्रणाम। भगवान शिव एवं माता पार्वती की कृपा से इस सीरीज में हम ब्रह्मा जी द्वारा निर्मित दशाश्वमेध तीर्थ का महात्म्य का अध्ययन किया । अब हम आज पिशाचमोचन तीर्थ का महात्म्य पढ़ेंगे ।
कार्तिकेय जी कहते है की भगवान शिव के एक गण थे उनका नाम था कपर्दी उन्होंने काशी आकर कपर्दिश्वर लिंग की स्थापना की और उसके आगे विमलोदक तीर्थ का निर्माण करवाया उस तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य का मन निर्मल हो जाता है । अब वहां का महात्म्य सुनो एक बार वहाँ पर वाल्मीकि जी आये और उन्होंने वहां पर कपर्दिश्वर लिंग की पूजा और विमलतीर्थ पर प्रतिदिन स्नान करते और तपस्या करते थे एकदिन जब वह नित्यकर्म के पश्चात तपस्या के लिए उद्यत हुए तभी वहां पर एक भयानक आकृति को देखा तो उन्होंने उस आकृति रूपी पिशाच से पूछा – तू कौन है । तब उस पिशाच ने कहा -भगवन मैं गोदावरी के निकट के देश मे रहने वाला एक ब्राह्मण था और मैं केवल तीर्थो में दान लिया करता था उसका कोई प्रायश्चित कर्म नही करता था । उसी के फलस्वरूप मुझे ये फल प्राप्त हुआ है । मैं भुख और प्यास से व्याकुल समय बिता रहा था तभी मैं नित्यक्रियादी से विहीन एक ब्राह्मण के पुत्र को देखा तो कुछ भोजनादि मिलने के आस में मैने उसके शरीर मे प्रवेश किया । वह ब्राह्मण धन के लोभ में किसी बनिया के साथ काशी में आया काशी में प्रवेश करने मात्र से उस ब्राह्मण के पाप और मैं उसी क्षण उसके शरीर से बाहर हो गए और मेरे कानों में भी शिव नाम जाने से कुछ पाप नष्ट हो गए और मैं काशी की अन्तरगृह सीमा तक प्रवेश कर पाया और आपके दर्शन करने से मेरा कुछ पाप नष्ट हुए अब मैं आप कृपा करके मुझे इस योनि से निकालिये ।
उस प्रेत की बात सुनकर मुनि वाल्मीकि ने सोचा कि अपना भला तो सब करते है दूसरे का भला करना ही परोपकार होता है आज मैं अपनी तपस्या से मेरी शरण मे आये इस प्रेत का उद्धार करूँगा
तब वाल्मीकि जी ने कहा – अरे ओ पिशाच ! तू इस विमलतीर्थ मे स्नान कर और कपर्दिश्वर का दर्शन कर क्षण भर में तेरे सारे पाप नष्ट हो जाएंगे ।
वह प्रेत नमस्कार करते हुए बोला – भगवन मैं इस तीर्थ का जल पी भी नही पाता हूं स्नान कैसे करूँ ।
तब वाल्मीकि जी ने उसे विभूति देते हुए बोला – ये भस्म अपने सर पर लगा कर स्नान कर तुझे कोई नही रोकेगा
वह प्रेत उस भस्म को अपने सिर पर लगाया और स्नान किया तो उस कुण्ड के रक्षक देवता ने उसको नही रोका उस प्रेत ने स्नान और जलपान किया और बाहर आया तो उसका पिशाचत्व छूट गया और उसने दिव्य देह धारण की और उसके लिए दिव्य विमान आया उसपर वह विराजमान होकर बोला कि – हे महामुने आप के द्वारा आज मैं इस पिशाचत्व से मुक्त हुआ हूं अब से इसका नाम पिशाचमोचन तीर्थ होगा जो भी व्यक्ति का यहाँ श्राद्ध होगा वह पिशाच योनि से मुक्त हो जाएगा जो व्यक्ति यहां स्नान करेगा कभी भी उसे पिशाच योनि नही प्राप्त होगी । ऐसा कह कर वह दिव्यधाम को चला गया ।
वाल्मीकि ऋषि भी कपर्दिश्वर की आराधना करते रहे और बाद में मोक्ष को प्राप्त हुए ।
इस प्रकार आज पिशाचमोचन तीर्थ का महात्म्य कहा आगे के क्रम में गणेष जी का किस प्रकार काशी में आगमन हुआ इसका अध्ययन करेंगे ।
प्रणाम


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