।। ॐ ।।

ज्ञानोदतीर्थपानीयैर्लिंगं यः स्नापयेत्सुधीः ।।

सर्वतीर्थोदकैस्तेन ध्रुवं संस्नापितं भवेत् ।।

ज्ञानरूपोह मेवात्र द्रवमूर्तिं विधाय च ।।

जाड्यविध्वंसनं कुर्यां कुर्यां ज्ञानोपदेशनम् ।।

 

ॐ नमः शिवाय

मेरे प्रिय पाठक गण आज आपकी श्रद्धा एवं श्रीकाशिविश्वनाथ की असीम अनुकम्पा से काशी की अनसुनी कहानी का सातवां भाग लेकर आया हु जिसमें हम ज्ञानवापी तीर्थ की महिमा का अध्यन करेंगे । शिव स्वयं ज्ञान है वापी का अर्थ है जल अर्थात जिस जल को पीने से अज्ञानता का नाश हो और ज्ञान की प्राप्ति हो वो है ज्ञान वापी । हम उस ज्ञानवापी का महात्म्य पढ़ रहे है जिसका स्मरण करने मात्र से मनुष्य समस्त पापो से मुक्त हो जाता है ।

आज हम उसी महात्म्य की कथा का अध्ययन करेंगे स्कंद ज्ञानवापी की उत्पत्ति के बारे ने बतानेके पश्चात बताते हैं कि –

अगस्त जी प्राचीन काल की बात है काशी में हरिस्वामी नामके एक विख्यात ब्राह्मण रहते थे । उनकी एक कन्या थी उसका नाम सुशीला था  जो इस पृथ्वी पर सबसे सुन्दर थी सम्पूर्ण कलाओं में निपुण थी।

ज्ञानवापी तीर्थ की सेवा से वह कन्या पूरे संसार को बाहर और भीतर से शिवमय देखती थी । एक दिन जब वह अपने घर के आंगन में सोई हुई थी उसके रूप को देखकर किसी विद्याधर ने उसका हरण कर लिया । वह रात में आकाशमार्ग से उस कन्या को लेकर मलयपर्वत पर जाना चाहता था । इतने में ही भयानक आकार वाला बिद्युन्माली नाम का राक्षस और उस पर आक्रमण कर दिया और उसके ऊपर त्रिशूल से प्रहार लर दिया विद्याधर भी बलवान था उसने अपने मुक्के से उस राक्षस पर प्रहार कर दिया , उस प्रहार से वह राक्षस चूर चूर होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा । इधर त्रिशूल से घायल हुए विद्याधर भी उस संग्राम में प्राण त्यागकर वीरगति को प्राप्त हुआ । सुशीला ने उस विद्याधर को ही अपना पति मानकर अपने शरीर को भस्म कर लिया । विद्याधर ने मृत्यु के समय अपनी प्रियतमा का स्मरण करते हुए प्राणो का त्याग किया था अतः वह राजा मलयकेतु के यहां पुत्र के रूप में जन्म लिया ।उधर  सुशीला भी विद्याधर का स्मरण करते हुए प्राणों का त्याग किया था इसलिए कर्नाटक में कलावती के नाम से  उत्पन्न हुई । पूर्वजन्म के पुण्य से वह इस जन्म में भी शिवमूर्ति की पूजा में तत्पर हुई ।।मलयकेतु के पुत्र का नाम माल्यकेतु था उससे सुशीला का विवाह हुआ उसने तीन संतानों को जन्म दिया । एक दिन कोई उत्तरभारत का चित्रकार राजा के माल्यकेतु के पास गया । उसने राजा को एक चित्र दिखाया । राजा ने उसे रानी कलावती को दे दिया । उस चित्र में उसे लोलार्क कुंड असि और गंगा का संगम , वरुणा और गंगा के संगम के बीच मे मणिकर्णिका तीर्थ है और विश्वनाथ जी का दरबार देखा और भी ऐसे अनेक तीर्थो का दर्शन उसने उस चित्र में किया जब वह उस चित्र में सभी तीर्थों का दर्शन कर रही थी तभी उसने विश्वनाथ जिनके दक्षिण भाग में ज्ञानवापी तीर्थ को देखा । ज्ञानवापी का दर्शन कर के कलावती के शरीर मे रोमांच आ गया और उसको अपने पूर्व जन्म का सब याद आ गया  वह चित्र हाथ से छूटकर गिर गया और वह बेहोश हो गयी ।

उसी समय उसकी दासियों ने उसे उठाया और पूछा क्या हुआ लेकिन वो बेहोशी की अवस्था मे कुछ बोल न सकी तभी उसकी एक सखी ने कहा यह इस चित्र को देखकर बेहोश हुई है यदि फिर से उस चित्र का स्पर्श  कराया जाए तो पुनः ठीक हो सकती है तब दासियो ने उस चित्र को उनको दिखाया और स्पर्श कराया तो वह तुरंत ठीक हो गयी ।

तब उसने उस चित्र को देखकर ज्ञानवापी तीर्थ को प्रणाम किया अपने पूर्वजन्म को याद करते हुए अपना वृतांत अपने दासियो को सुनाया

तब दासियो ने कहा जिस ज्ञानवापी के प्रभाब से आपको पूर्वजन्म के याद आ गयी उसका दर्शन हमे कैसे प्राप्त होगा । आप महाराज से बात करके हमको भी वहां ले चले । इससे अवश्य ही हमारा कल्याण होगा । कलावती ने उन सबकी प्रार्थना स्वीकार करके महाराज से कहा – हे प्राणनाथ आपके जैसा पति प्राप्त कर के हमने जीवन समस्त मनोरथ पूरे कर लिए अब एक ही मनोरथ शेष रह गया है कृपया आप मुझे काशीपुरी ले चलिए

राजा ने कहा यदि तुमने काशी जाने का निश्चिय कर लिया है तो अब मुझे भी यहाँ रहने की क्या आवश्यकता । अतः हम दोनों को काशी चलना चाहिए । इस प्रकार आने पत्नी को कहने के बाद अपने पुत्र को राजसिंहासन पर बैठा कर काशी के लिए चल पड़ा । वहां पहुँच कर बाबा विश्वनाथ का दर्शन पूजन किया  मणिकर्णिका स्नान किया और ब्राह्मणों को दान किया और ज्ञानवापी तीर्थ में रत्नजड़ित सीढिया लगवा कर उसका जीर्णोद्धार कराया फिर वही दोनों तपस्या करने लगे ।

एक दिन प्रातःकाल वे दोनों दंपति ज्ञानवापी के समीप स्नान करके बैठे हुए थे तभी एक जटाधारी व्यक्ति ने आकर उनके हाथ मे बिभूति दी और इस प्रकार कहा -उठो आज एक क्षण में तुम्हे तारक मंत्र का उपदेश मिलेगा ।उस जटाधारी के इतना कहते ही आकाश से एक तेजस्वी विमान आया और देखते ही देखते भगवान शिव उस विमान से उतरे उतरकर उन दोनों दंपति के कानों में तारक मंत्र का उपदेश किया फिर वो दोनों ज्योतिस्वरूप होकर आकाश में विलीन हो गौए महादेव जी भी अपने धाम को चले गए

स्कंद जी कहते है – तभी से ज्ञानवापी तीर्थ का महत्व संसार मे सबसे अधिक हो गया । ज्ञान वापी भगवान शिव का ज्ञान स्वरूप है

इस प्रकार हमने ज्ञानवापी के महिमा का ज्ञान स्वरुप अध्यन किया आगे काशी के अन्य तीर्थो की भी चर्चा होगी

हर हर महादेव

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