वर्तमान में जीने का नाम ही धर्म है

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अहंकार जीता है अतीत में और भविष्य में। वर्तमान में उसकी मृत्यु हो जाती है। वर्तमान अहंकार की मृत्यु है। जहां अहंकार नहीं, वहां जो है, वही है। और, तब बड़ा चकित हो उठता है हृदय। विस्मित-विमुग्ध, अवाक् हो जाता है परमात्मा की अनुभूति से जो भी छोड़ता है, वही चकित होता है। क्योंकि कर-कर के जो नहीं हो पाया, वह छोड़ने से होता है। अपने से जो नहीं हो पाया, जब हम थक कर असहाय उसके चरणों में गिर जाते हैं, तत्क्षण हो जाता है।

कुछ चीजें हैं, जो करने से होती हैं। वे सब छोटी-छोटी चीजें हैं। हमारा करना ही बहुत छोटा-छोटा है। हमारे हाथ कितने बड़े हैं? हां, रेत भरनी हो तो इस हाथ में भरी जा सकती है। कंकड़-पत्थर उठाने हों तो उठाए जा सकते हैं। चांद-तारे तो नहीं। हाथ की सामर्थ्य कितनी है? सागर तो इन चुल्लुओं में नहीं भरे जा सकते। और परमात्मा सागर है, परमात्मा विस्तीर्ण है। इसलिए तो हमने उसे ‘ब्रह्म’ कहा। ब्रह्म का अर्थ होता है: जो फैलता ही चला जाता है।

तुम जान कर चकित होगे: आधुनिक भौतिकी ने इस सिद्धांत को अभी-अभी खोजा है कि जगत रोज-रोज विस्तीर्ण हो रहा है। यह जो विश्व है, विस्तार कर रहा है, यह विस्तीर्ण होता विश्व है। यह वैसे ही का वैसा नहीं है, यह फैल रहा है। बड़ी तेजी से फैल रहा है! यह फैलता ही चला जा रहा है। ये चांद-तारे तुमसे रोज दूर होते चले जा रहे हैं- बड़ी तीव्र गति से! प्रकाश की गति से अस्तित्व फैल रहा है।

प्रकाश की गति बहुत है। एक सेकंड में एक लाख छियासी हजार मील। जो तारा तुम देख रहे हो रात में, वह प्रति सेकंड एक लाख छियासी हजार मील तुमसे दूर होता जा रहा है। उसकी अत्यधिक गति के कारण ही तो तुम्हें झिलमिलाहट मालूम होती है। तारे जो झिलमिलाते मालूम होते हैं, वह इसीलिए कि वे इतनी तेजी से भाग रहे हैं… ठहरे ही नहीं हैं। ठहरे होते तो झिलमिलाहट नहीं होती। सारा अस्तित्व फैलता जा रहा है।

यह तो अभी खोजा भौतिक शास्त्रियों ने। लेकिन इस देश में हमने करीब दस हजार साल से परमात्मा को नाम दिया है- ब्रह्म। अगर ब्रह्म का ठीक-ठीक अंग्रेजी में अनुवाद करो तो एक्सपैंशन होगा- जो फैल रहा है। ब्रह्म से ही शब्द बना है—विस्तार, विस्तीर्ण, वृहत्। जो बड़ा होता जा रहा है, वही ब्रह्म।

इस जगत को हम ब्रह्मांड कहते हैं। यह उसका प्रकट रूप है। इस विराट को कैसे हम आदमी की छोटी-छोटी मुट्ठियों में भरेंगे? यह तो मुट्ठी खोल कर पाया जाता है, मुट्ठी बांध कर नहीं पाया जाता। और मुट्ठी खोलने का अर्थ है समर्पण।

जब से तेरी मर्जी पर सब छोड़ा, तब से जो कुछ हो रहा है इससे आश्चर्य-विमुग्ध हूं।

जो भी छोड़ेगा उसकी मर्जी पर, वह आश्चर्य-विमुग्ध हो जाएगा। एक घर छूटता है, सारे घर अपने हो जाते हैं। एक आंगन छूटता है, सारे आकाश अपने हो जाते हैं। एक बूंद छूटती है, सारे सागर अपने हो जाते हैं। और सबसे बड़ा आश्चर्य जो घटता है, वह यह कि अतीत खो जाता है, भविष्य खो जाता है, वर्तमान में थिरता हो जाती है। भक्त की ऐसी दशा है- जो उसकी मर्जी। भक्त शुद्ध वर्तमान में ठहर जाता है; न उसे पाप है कुछ, न पुण्य है कुछ। यह बड़ी ऊंची बात है। यह द्वंद्वातीत बात है। यह अतिक्रमण है सारे भेदों का। इस दशा में वर्तमान का क्षण सब कुछ होता है- न पश्चात्ताप है, न पुण्य का दर्प है।

देखते हो, चांद-तारे अभी जी रहे हैं। फूल अभी खिल रहे हैं। नदियां अभी बह रही हैं। सागर अभी उत्ताल तरंगों से भरे हैं। हवाएं अभी गुजर रही हैं वृक्षों से। वृक्ष अभी हरे हैं। न तो वृक्षों को कल की कोई याद है, न आने वाले कल की कोई चिंता है। न चांद-तारों को कल का पता है, न आने वाले कल का कोई पता है। ऐसे ही तुम भी जी सकते हो। और ऐसे जीने का नाम ही धर्म है, ध्यान है।

समर्पण ले आता है तुम्हें क्षण में। चिंता गई, स्मृति गई, कल्पना गई। अचानक तुम पाते हो अपने को- अभी और यहां! और, अभी और यहां परमात्मा है! अभी और यहां अस्तित्व है!

सौजन्य: ओशोधारा, मुरथल, सोनीपत

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