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प्रभु श्रीराम और माता सीता मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष पंचमी को परिणय सूत्र में बंधे थे। भारत में इस शुभ दिन को ‘विवाह पंचमी’ के रूप में मनाया जाता है।
जीवन का पाथेय अगर भगवान श्रीराम हैं, तो उन तक पहुंचने का पथ केवल माता सीता हैं। वह श्रीराम की लीला सहचरी हैं। माता के चरणों की वंदना करते हुए मानस में कहा गया है- ‘सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा।।’ रामकथा की जो गंगा बह रही है, उसकी निर्मलता सीता के अनुपम गुणों के कारण है।
माता के जगत्जननी रूप को केवल गहरे ध्यान में ही समझा जा सकता है। प्रभु के चरित्र की मर्यादा को माता सीता की शाश्वत शक्ति के कारण ही स्थायी भाव मिला। अपने जन्म के साथ ही माता जानकी की जीवन यात्रा दो हिस्सों में बंट गई। वह सदैव ऋत (धर्म, विवेक, प्रज्ञा) और सत्य के दो किनारों पर चलती रहीं। माता ने मातृत्व भाव को दिल में संजोये रखा। उनके जीवन में धरती माता का हिस्सा था, जिसके कारण उनमें ठोस यथार्थ के गुणों का वास रहा। दूसरी ओर राजर्षि जनक रूपी आकाश के कारण उनका चित्त सदैव ऊर्ध्वगामी रहा।
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लोक की चिंता के साथ ही प्रज्ञा के शिखर की यात्रा केवल जनक की नंदिनी के लिए ही संभव था। वह सदैव ही कर्म अैर धर्म के संतुलन के लिए समन्वय और सहयोग करती रहीं, जिसके कारण ही राम ने जीवन में नायक की मर्यादा निभाई और ईश्वरीय सत्त को स्वयं के माध्यम से उद्घाटित किया। रामविहीन होकर सीता के लिए जीना कठिन था, तो सीताविहीन राम की कल्पना भी संभव नहीं। सीता रूपी आधार के धरती में समाते ही श्रीराम ने सरयू में समाधि लेकर माता के मार्ग का ही अनुसरण किया।
श्रीराम सदैव सत्कर्म पर रहें, इसके लिए उनको विकसित करने में आधार भूमि के रूप में माता सीता ने स्वयं को प्रस्तुत किया। उनके जीवन में योग और भोग, सुख और दुख दोनों का एक खेल से ज्यादा महत्त्व नहीं रहा। वह हर स्थिति में एकरस रहीं। वह जगतजननी हैं। सबका कल्याण ही उनके स्वभाव का अविभाज्य भाव है। माता का आचरण त्याग का आचरण है। वह सदैव दूसरे के लिए विसर्जित होने को तत्पर हैं। राम के साथ सीता का वन में जाना परमार्थ कार्य था।
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राम पूर्णता को प्राप्त करें, इसलिए माता ने राम से बिछुड़कर देह के मोह का अतिक्रमण किया। एकांतवासी रहीं। वनगमन के समय जब लक्ष्मण को संदेह हुआ तो उन्होंने पूछा- क्या आपको लगता है कि राम ने आपको त्याग दिया है। वह खुद कहती हैं कि उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे ऐसा कर ही नहीं सकते। देवत्व से परिपूर्ण चेतना किसी का त्याग नहीं करती है। और मैं तो विदेहधारी हूं। कोई मेरा त्याग कर भी नहीं सकता है।
श्रीराम सदैव ही विश्वास करने योग्य हैं। वह मर्यादा के प्रतिमान है, इसलिए भगवान हैं। जबकि माता स्वतंत्र हैं, विदेह सुता हैं, इसलिए वह भगवती हैं।
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