प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं ।

गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।।

धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं ।

त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः।।


काशी की अनसुनी कहानी के पाठकगण को सादर प्रणाम आज काशी विश्वनाथ एवं माता अन्नपूर्णा की कृपा से काशी की अनसुनी कहानी का क्रम दिन प्रतिदिन आगे की ओर अग्रसर है हम लोग इस सीरीज के माध्यम से काशी के रहस्यों को आपके सम्मुख रख रहे है इन्ही रहस्यों के क्रम में हमने पूर्व के भागो में पढ़ा था कि राजा दिवोदास को जब काशी का राज्य प्राप्त हुआ तो उसने सर्वप्रथम काशी ही नही अपितु समस्त पृथ्वी से ही समस्त देवताओं को बाहर जाने का आदेश दे दिया था और इस कारण काशी से काशी विश्वनाथ को भी काशी को छोड़कर जाना पड़ा तब भगवान शिव किस प्रकार काशी में आने के लिए चौसठ योगिनी और सूर्यदेब को भेजा राजा के पाप का पता लगाने जिससे वो काशी में प्रवेश कर पाए परन्तु सूर्यदेब और योगीनी  पता नही लगा सकी और वही स्थित हो गयी( इस कथा क्रम में हमने सूर्य के 12 स्थानों  की कथा हम पहले ही पढ़ चुके है )

कार्तिकेय जी कहते है – तब शिव जी जी ने देखा कि यह क्या हो रहा है कोई काशी से वापस नही आ रहा है तब उन्होंने ब्रह्मा जी का ध्यान किया और उसी क्षण ब्रह्मा जी वहां उपस्थित हुए । तब शिव जीने उनसे कहा मैंने काशी का समाचार जानने की इच्छा से योगिनियो और सूर्यदेब को काशी भेजा परन्तु वो वही स्थित हो गए इसलिए तुम वहां जाओ और वहां की स्थिति का पता लगाओ । शिव जी की आज्ञा मानकर ब्रह्मा जी वहां से अंतर्ध्यान हो गए और काशी में दिवोदास की सभा मे एक ब्राह्मण का भेष धारण करके गए और उससे बोले ।

ब्राह्मण रूपी ब्रह्मा बोले – हे राजन मैं बहुत पुराना हु मै तुम्हे बहुत पहले से जानता हूं तुम मुझे नही जानते हो तुम्हारा पहले का नाम रिपुञ्जय है तुम ने बहुत सारे दिव्य कार्य किये है तुम्हारा कोई शत्रु नही है वर्तमान में तुम काशी नगरी पर राज्य कर रहे हो मुझे यज्ञ करने की आवश्यकता है यदि आप मुझे यज्ञ के लिए स्थान काशी जैसी पुण्यनगरी में दे तो कृपा होगी ।

राजा बोले – है ब्राह्मण देव मैंने आपकी बातों को अपने मन मे धारण कर लिया है आप को जितना चाहे धन एवं यज्ञ सामग्री हमारे कोष में से चाहे ले सकते है जिस स्थान पर आपकी इच्छा हो वहां  यज्ञ कर सकते है ।

राजा की बात सुनकर ब्राह्मण ने राजा के कोष से यज्ञ की सामग्री ली और रुद्रासरोवर के समीप दश अश्वमेध यज्ञ किये और इसी कारण से उस स्थान का नाम दशाश्वमेध पड़ गया ।

उसके बाद वहां पर भगिरथ जी के साथ गंगा जी आयी तो वह स्थान बहुत पुण्यो को देने वाला हो गया ।

जो व्यक्ति दशाश्वमेध तीर्थ का गंगा दशहरा के दिन स्नान करता है और दशाश्वमेधेश्वर लिंग की पूजा करता है उसके समस्त पाप उसी क्षण नष्ट हो जाएगा एवं यदि मनुष्य ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीय से पूरे पक्ष भर रुद्रासरोवर में स्नान करता है उसको दुबारे गर्भ में आने के बंधन से मुक्त हो जाता है और उसके जीवन के समस्त विघ्न समाप्त हो जाते है ।

फिर उस यज्ञ को पूरा करने के पश्चात वहां पर एक ब्रह्मशाला का निर्माण ब्रह्मा जी ने किया और वही पर निवास करने लगे।

इसप्रकार आज हमलोग ने दशाश्वमेध तीर्थ का  उद्भव एवं महात्म्य पढ़ा जिसको पढ़ने मात्र से समस्त प्रकार के सुख प्राप्त होती है । आगे पिशाचमोचन तीर्थ के बारे में पढ़ेंगे

प्रणाम

 

 

0 replies

Leave a Reply

Want to join the discussion?
Feel free to contribute!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *