भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान् ।

तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।।

अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि ।

प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते ।।


काशी की अनसुनी कहानी के समस्त पाठकगण को सदर प्रणाम काशी विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा की कृपा से  आजतक हम लोग इस सीरीज के माध्यम से बहुत सारी काशी के रहस्यों को जाना और समझा और ये भी जाना कि काशी में तपस्या के फल से ही दिवोदास नाम के राजा ने काशीपति को ही काशी से जाने पर मजबूर कर दिया ।  काशीपतितके आज्ञा के बिना काशी के रहस्यों को कोई नही जान सकता है तो इसका यही अर्थ है कि काशी पति विश्वनाथ की भी यही इच्छा है कि हम इस रहस्यों को जाने ।

अबतक हमने पढ़ा कि काशी विश्वनाथ जी ने योगिनियो , सूर्यदेब, ब्रह्मा जी को काशी भेजा काशी का समाचार जानने के लिए परन्तु वह सभी काशी से नही आये और वही रह गए तब उन्होंने अपने पुत्र गणेश जी को भेजा  है ।

कार्तिकेय जी कहते है गणेश जी शिव जी की आज्ञा प्राप्त कर एक ज्योतिषी का रूप धारण करके दिवोदास की नगरी में जाते है और वहां सबका भूत, भविष्य बताकर प्रभावित करते है , जिससे पूरे नगर में गणेश जी की ही चर्चा प्रारम्भ हो जाती है जब राजा की पत्नी लीलावती ने उनके बारे में सुना तो उन्हें अपने अन्तःपुर में बुलाया और अपना कुशल क्षेम जाना फिर राजा को भी परिचय कराया ।

तब राजा दिवोदास ने उन्हें एकांत में ले जाकर के अपने भविष्य की बातों को पूछा और कहा कि – हे ब्राह्मन ! अब मैं अपने कर्मो से विरक्त होता जा रहा हु कृपा करके कुछ उपाय बताए ।

गणेश जी बोले – हे राजन! आज से अठारहवे दिन एक ब्राह्मण आएगा और वो तुम्हे उपदेश करेगा तुम उसकी बात मानना और पालन करना तुम्हारा सारा मनोरथ सिद्ध होगा ।

ऐसा कह कर गणेश जी अपने आश्रम में चले गए और इस प्रकार पूरी नगरी उनके वश में हो गयी ।जब दिवोदास काशी के राजा नहींथे उस समय काशी में गणेश जी के जो जो स्थान थे उन सभी स्थानों में गणेश जी स्थित होकर पुनः सुशोभित किया ।(पूर्व में हमने जो सूर्यदेब, योगिनियो की काशी में स्थित होने की कथा पढ़ी है वो भी वही स्थित हुए जहाँ वह पहले से स्थित थे ।)

गणेश जी की पूजनके बाद निम्न स्त्रोत के पाठ से गणेष जी शीघ्र प्रसन्न होते है –

जय विघ्नकृतामाद्य भक्तनिर्विघ्नकारक ।।

अविघ्नविघ्नशमन महाविघ्नैकविघ्नकृत् ।। १७ ।।

जय सर्वगणाधीश जय सर्व गणाग्रणीः ।।

गणप्रणतपादाब्ज गणनातीतसद्गुण ।। १८ ।।

जय सर्वग सर्वेश सर्वबुद्ध्येकशेवधे ।।

सर्वमायाप्रपंचज्ञ सर्वकर्माग्रपूजित ।। १९ ।।

सर्वमंगलमांगल्य जय त्वं सर्वमंगल ।।

अमंगलोपशमन महामंगलहेतुक ।। 4.2.57.२० ।।

जय सृष्टिकृतां वंद्य जय स्थितिकृतानत ।।

जय संहृतिकृत्स्तुत्य जयसत्कर्मसिद्धिद ।। २१ ।।

सिद्धवंद्यपदांभोज जयसिद्धिविधायक ।।

सर्वसिद्ध्येकनिलय महासिद्ध्यृद्धिसूचक ।।२२।।

अशेषगुणनिर्माण गुणातीत गुणाग्रणी ।।

परिपूर्णचरित्रार्थ जय त्वं गुणवर्णित ।। २३ ।।

जय सर्वबलाधीश बलाराति बलप्रद ।।

बलाकोज्ज्वल दंताग्र बालाबालपराकम ।। २४ ।।

अनंतमहिमाधार धराधर विदारण।।

दंताग्रप्रोतां दङ्नाग जयनागविभूषण।। २५।।

ये त्वांनमंति करुणामय दिव्य मूर्ते सर्वैनसामपि भुवो भुविमुक्तिभाजः।।

तेषां सदैव हरसीहमहोपसर्गान्स्वर्गापवर्गमपि संप्रददासि तेभ्यः ।। २६ ।।

ये विघ्नराज भवता करुणाकटाक्षैः संप्रेक्षिताः क्षितितले क्षणमात्रमत्र ।।

तेषां क्षयंति सकलान्यपिकिल्विषाणि लक्ष्मीः कटाक्षयतितान्पुरुषोत्तमान्हि ।। २७ ।।

ये त्वां स्तुवंति नतविघ्नविघातदक्ष दाक्षायणीहृदयपंकजतिग्मरश्मे ।।

श्रूयंत एव त इह प्रथिता न चित्रं चित्रं तदत्र गणपा यदहो त एव ।। २८ ।।

ये शीलयंति सततं भवतोंघ्रियुग्मं ते पुत्रपौत्रधनधान्यसमृद्धिभाजः ।।

संशीलितांघ्रिकमला बहुभृत्यवर्गैर्भूपालभोग्यकमलां विमलां लभंते ।। २९ ।।

त्वं कारणं परमकारणकारणानां वेद्योसि वेदविदुषां सततं त्वमेकः ।।

त्वं मार्गणीयमसि किंचन मूलवाचां वाचामगोचरचराचरदिव्यमूर्ते ।। 4.2.57.३० ।।

वेदा विदंति न यथार्थतया भवंतं ब्रह्मादयोपि न चराचर सूत्रधार ।।

त्वं हंसि पासि विदधासि समस्तमेकः कस्तेस्तुतिव्यतिकरो मनसाप्यगम्य ।। ३१ ।।

त्वद्दुष्टदृष्टिविशिखैर्निहतान्निहन्मि दैत्यान्पुरांधकजलंधरमुख्यकांश्च।।

कस्यास्ति शक्तिरिह यस्त्वदृतेपि तुच्छं वांछेद्विधातु मिह सिद्धिदकार्यजातम् ।। ३२ ।।

अन्वेषणे ढुंढिरयं प्रथितोस्तिधातुः सर्वार्थढुंढिततया तव ढुंढि नाम ।।

काशीप्रवेशमपि को लभतेत्र देही तोषं विना तव विनायकढुंढिराज ।। ३३ ।।

ढुंढे प्रणम्यपुरतस्तवपादपद्मं यो मां नमस्यति पुमानिह काशिवासी ।।

तत्कर्णमूलमधिगम्य पुरा दिशामि तत्किंचिदत्र न पुनर्भवतास्ति येन ।। ३४ ।।

स्नात्वा नरः प्रथमतो मणिकर्णिकायामुद्धूलितांघ्रियुगलस्तु सचैलमाशु ।।

देवर्षिमानवपितॄनपि तर्पयित्वा ज्ञानोदतीर्थमभिलभ्य भजेत्ततस्त्वाम् ।। ३५ ।।

सामोदमोदकभरैर्वरधूपदीपैर्माल्यैः सुगंधबहुलैरनुलेपनैश्च ।।

संप्रीण्यकाशिनगरीफलदानदक्षं प्रोक्त्वाथ मां क इह सिध्यति नैव ढुंढे ।। ३६ ।।

तीर्थांतराणि च ततः क्रमवर्जितोपि संसाधयन्निह भवत्करुणाकटाक्षैः ।।

दूरीकृतस्वहितघात्युपसर्गवर्गो ढुंढे लभेदविकलं फलमत्र काश्याम्।। ३७ ।।

यः प्रत्यहं नमति ढुं ढिविनायकं त्वां काश्यां प्रगे प्रतिहताखिलविघ्नसंघः ।।

नो तस्य जातु जगतीतलवर्ति वस्तु दुष्प्रापमत्र च परत्र च किंचनापि ।। ३८ ।।

यो नाम ते जपति ढुंढिविनायकस्य तं वै जपंत्यनुदिनं हृदि सिद्धयोष्टौ ।।

भोगान्विभुज्य विविधान्विबुधोपभोग्यान्निर्वाणया कमलया व्रियते स चांते ।। ३९ ।।

दूरे स्थितोप्यहरहस्तव पादपीठं यः संस्मरेत्सकलसिद्धिद ढुंढिराज ।।

काशीस्थिते रविकलं सफलं लभेत नैवान्यथा न वितथा मम वाक्कदाचित् ।। 4.2.57.४० ।।

जाने विघ्नानसंख्यातान्विनिहंतुमनेकधा ।।

क्षेत्रस्यास्य महाभाग नानारूपैरिहस्थितः ।। ४१ ।।

यानि यानि च रूपाणि यत्रयत्र च तेनघ ।।

तानि तत्र प्रवक्ष्यामि शृण्वंत्वेते दिवौकसः ।। ४२ ।।

प्रथमं ढुंढिराजोसि मम दक्षिणतो मनाक् ।।

-आढुंढ्य सर्वभक्तेभ्यः सर्वार्थान्संप्रयच्छसि ।। ४३ ।।

अंगारवासरवतीमिह यैश्चतुर्थीं संप्राप्य मोदकभरैः परिमोदवद्भिः ।।

पूजा व्यधायि विविधा तव गंधमाल्यैस्तानत्र पुत्रविदधामि गणान्गणेश ।। ४४ ।।

ये त्वामिह प्रति चतुर्थि समर्चयंति ढुंढे विगाढमतयः कृतिनस्त एव ।।

सर्वापदां शिरसि वामपदं निधाय सम्यग्गजानन गजाननतां लभंते ।। ४५ ।।

माघशुक्लचतुर्थ्यां तु नक्तव्रतपरायणाः ।।

ये त्वां ढुंढेर्चयिष्यंति तेऽर्च्याः स्युरसुरद्रुहाम् ।।४६।।

विधाय वार्षिकीं यात्रां चतुर्थीं प्राप्य तापसीम् ।।

शुक्लां शुक्लतिलैर्बद्ध्वा प्राश्नीयाल्लड्डुकान्व्रती ।। ४७ ।।

कार्या यात्रा प्रयत्नेन क्षेत्रसिद्धिमभीप्सुभिः ।।

तस्यां चतुर्थ्यां त्वत्प्रीत्यै ढुंढे सर्वोपसर्गहृत् ।। ४८ ।।

तां यात्रां नात्रयः कुर्यान्नैवेद्यतिललडुकैः ।।

उपसर्गसहस्रैस्तु स हंतव्यो ममाज्ञया ।। ४९ ।।

होमं तिलाज्यद्रव्येण यः करिष्यति भक्तितः ।।

तस्यां चतुर्थ्यां मंत्रज्ञस्तस्य मंत्रः प्रसेत्स्यति ।। 4.2.57.५० ।।

वैदिकोऽवैदिको वापि यो मंत्रस्ते गजानन ।।

जप्तस्त्वत्संनिधौ ढुंढे सिद्धिं दास्यति वांछिताम् ।। ५१ ।।

इस प्रकार आज हमने गणेश जिनके काशी में ज्योतिष अवतार को पढा आगे कथा में शिव के अन्य काशी में प्रवेश के उपायों का अध्ययन करेंगे

प्रणाम

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