त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति ।

प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।।

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां ।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।

 

काशी की अनसुनी कहानी के सभी पाठकगण को सादर प्रणाम भूतभावन काशीपति श्री महादेव एवं जगतमाता पार्वती जी की विशेष अनुकम्पा से हम सभी काशीखण्ड में वर्णित काशी के रहस्यों को बहुत ही सरल भाषा मे अध्ययन कर रहे है । अभीतक हमने पढ़ा कि शिव जी ने योगिनी ,सूर्य, ब्रह्मा, गणेश सभी को भेजा और कोई भी वापस नही आये तो उन्होंने विष्णु जी के ओर देखा और कहा

शिव जी कहते है- हे माधव! आप भी वैसा मत कीजियेगा जैसा पूर्व के लोगो ने किया है ।

तब विष्णु जी बोला- इस लोक में मनुष्य जो भी कर्म करता है वो सभी आपके द्वारा किया हुआ ही जो पूर्ण कर लेता है वो आपको ही समर्पित होता है । इसलिए आपने इस कार्य को करने का निश्चय किया है तो इस कार्य को पूरा हुआ ही समझे । ऐसा कहकर विष्णुजी ने शिव जी की परिक्रमा की और प्रणाम कर के लक्ष्मी जी के साथ वहाँ से निकल पड़े ।

सर्वप्रथम उन्होंने गंगा और वरुणा के संगम में स्नान किया और वहां पर अपने पवित्र कर देने वाले पैर को धोया जो पादोदक तीर्थ के नाम से विख्यात है। (वर्तमान में आदिकेशव घाट) जो मनुष्य पादोदक तीर्थ में स्नान करता है उसके सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते है और जो वहां अपने पितरों का तर्पण करता है उसकी इक्कीस पीढ़ी तर जाती है , जो मनुष्य उस जल से शालिग्राम को स्नान कराकर जल पीता है उसे नरक का मुँह कभी देखना नही पड़ता है ।

फिर स्नानादि करने के पश्चात भगवान विष्णु ने गरुड़ और लक्ष्मी के साथ अपनी ही प्रस्तरमयी मूर्ति की पूजा की और उसे स्थापित किया जो वर्तमान में आदिकेशव के नाम से प्रसिद्व है । ये स्थान काशी के सीमा में श्वेतदीप के नाम से जाना जाता है । इसी के आगे क्षीरसागर नाम का दूसरा तीर्थ है उसमें स्नान करने से मनुष्य को क्षीरसागर में रहने का फल प्राप्त होता है ,यही पर लक्ष्मी जी की पुण्यमयी मूर्ति है जिनका दर्शन करने से मनुष्य को रोगो का भय नही रहता । फिर भगवान विष्णु अपने ही केशव मूर्ति में से शिव जी का कार्य करने के लिए अंश भाग में बाहर निकले और काशी से उत्तर दिशा की ओर जाकर अपने रहने के लिए स्थान निश्चित किया जो धर्मक्षेत्र कहलाया वर्तमान में इसे सारनाथ के नाम से जाना जाता है ।

भगवान विष्णु और गरुड़ ने यही पर गुरु शिष्य का भेष बदला और भगवान विष्णु ने अपना नाम पुण्यकीर्ति और गरुड़ जी विनयकीर्ति रखा । वहां पुण्यकीर्ति ने विनयकीर्ति को उपदेश देना शुरू किया । उनके उपदेश से पूरे नगर वासी उनके निकट आने लगे और वहां पर भीड़ जुटने लगी ।

इधर गणेश जी राजा दिवोदास के मन के अंदर परम वैराग्य का उपदेश कर दिए थे जिसके कारण राजा दिवोदास अट्ठारह दिनों तक ब्राह्मण की प्रतीक्षा कर रहा था जो उसे उपदेश करे । अट्ठारहवे दिन पुण्यकीर्ति स्वयं राजा के द्वार पर आए तो राजा के मन मे बढ़ा हर्ष हुआ और उसने समझ लिया कि ये ही वो ब्राह्मण है जो उन्हें उपदेश करने आये है ,ऐसा विचार कर राजा दिवोदास ने उन्हें प्रणाम किया और अपने अन्तःपुर में ले जाकर आसन अर्घ्य आचमन दिया और उसके पश्चात उसने कहा – प्रभो ! मैं राज्य का भार ढोते ढोते खिन्न हो गया हूँ , मेरे राज्य में कोई पापकर्म नही करता था मैंने भी कभी किसी के साथ कोई अधर्म नही किया । अब मैं मुझे ऐसा उपदेश करे की मुझे दुबारे गर्भ में न आना पड़े और मेरी मुक्ति हो जाये ।

पुण्यकीर्ति ने कहा – जो मैं सब बोलना चाहता हु वह सब तुम बोल दिए । एव तुम सब जानते हो । तुम सब जानते हो और तुम पहले से ही कृतार्थ हो तो भी तुम मुझे सम्मान दे रहे हो । तुम्हारे राज्य में कभी कोई भी पाप नही हुआ एवं सभी देवता भी तृप्त रहे । मेरे हृदय में तुम्हारे लिए केवल एक ही दोष दिखता है ,वह है तुमने काशी विश्वनाथ को काशी से बाहर कर दिया । मेरे समझ मे तुम्हारा सबसे बड़ा अपराध यही है , इसके लिए मैं तुम्हे एक उत्तम उपाय बताता हूं सुनो – तुम एक शिवलिंग की स्थापना करो और उनकी विधिवत पूजा करो ऐसा करने से तुम्हारे पाप कट जाएंगे औरऐसा करने आज से सातवे दिन एक विमान आएगा जो सशरीर तुम्हे शिवधाम ले जाएगा यही तुम्हारे काशी के सेवन का फल है ।

तब राजा बड़े प्रसन्न हुआ और उन्हें बारम्बार प्रणाम किया और बोला आपने मुझे संसार सागर से पार कर दिया , और भगवान वहां से चल दिये ,और वहां से आगे बढ़कर पंचनद तीर्थ पर स्नान करके फिर विश्राम किया ततपश्चात गरुड़ को भगवान शिव के पास उनके आगमन का समाचार देने के लिए भेजा ।

इधर राजा दिवोदास ने पुयकीर्ति के बताए अनुसार सारे राजपाठ छोड़ कर भगवान शिव की स्थापना की और उनकी पूजा शुरू किया । जिस स्थान पर राजा ने मंदिर बनवाया वह भूपालश्री के नाम से प्रसिद्ध है और जो शिवलिंग की उसने स्थापना की वह दिवोदासेश्वर लिंग के नाम से प्रसिद्ध है सात दिन बाद शिव के पार्षद आये और राजा को शिवधाम में ले गए । जिस स्थान पर राजा ने पूजा की यदि कोई मनुष्य उस तीर्थ में दान पूजा पाठ करता है उसे पुनः गर्भ में नही आना पड़ता है ।इस कथा को सुनने मात्र से मनुष्य के सभी मनोरथ सिद्ध होते है।

इसप्रकार आज हम लोग ने भगवान विष्णु का काशी गमन एवं काशी मेंआदिकेशव तीर्थ, पदोदक तीर्थ, श्वेतदीप ,क्षीरसागर और धर्मक्षेत्र(सारनाथ) की उत्पत्ति एवं महिमा को जाना कल पंचगंगा एवं बिंदुमाधव की कथा का अध्ययन करेंगे

जय श्री कृष्ण

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