कलिन्दजातटाटवीलतानिकेतनान्तर- प्रगल्भवल्लविस्फुरद्रतिप्रसङ्गसङ्गतम् ।

सुधारसार्द्रवेणुनादमोदमाधुरीमद- प्रमत्तगोपगोव्रजं भजामि बिन्दुमाधवम् ॥


जानिए बिंदुमाधव एवं पंचगंगा घाट का रहस्य


काशी की अनसुनी  कहानी के समस्त पाठक गण सादरप्रणाम काशीविश्वनाथ एवं माता अन्नपूर्णा की अनुकम्पा एवं आप सभी के आशीर्वाद से आज हम सभी काशी खंड पूर्वार्ध को पूरा करके उत्तरार्ध की ओर बढ़ गए है | अभीतक हमने पढ़ा की भगवानशिव के कहने पर भगवान विष्णु जी काशी जाकर राजा दिवोदास को मोक्ष प्रदान करने वाला ज्ञान प्रदान करते है और स्वयं पंचनद तीर्थ पर जाकर स्नान करते है और गरुड़ को शिव जी को बुलाने के लिए भेजते है , आज हम इस कथा के आगे की कथा का अध्ययन करेंगे |

 

अगस्त ऋषि ने स्कन्द जी से पूछा की – हे प्रभु ऐसा क्या है पंचनद तीर्थ में जो भगवान विष्णु को इतना प्रिय हुआ |

स्कन्द जी कहते है – जो मैंने पूर्व में द्वादश आदित्यों को कथा सुनाई थी उसमे एक आदित्य है मयूखादित्य , तो जब मयूखादित्य नाम के सूर्य तपस्या कर रहे थे तो उस समय उनके शरीर में से पसीना निकला जो एक पुण्यमयी नदी किरणा के नाम वहाँ स्थित हो गयी | वहा पूर्व से स्थित धूतपापा नाम की नदी से मिली | धूतपापा और किरणा नदी के संगम में स्नान करने मात्रा से मनुष्य घोर नरक से दूर हो जाता है | लेकिन कुछ समय के बाद वहाँ पर भगीरथ जी के साथ गङगा, यमुना, सरस्वती आयी और ये पांच नदिया मिलनेसे  ये तीर्थ पंचगंगा के नाम से प्रसिद्ध है | इसमें स्नान करने से मनुष्य को दुबारा शरीर नहीं ग्रहण करना परता है |काशी में पग पग पर बहुत तीर्थ है परन्तु वो पंचनद तीर्थ के करोड़वें अंश के बराबर भी नहीं है , यही कारण है ये तीर्थ भगवान विष्णु को अत्यंत रचिकर हुआ |

 

अब आगे की कथा कहता हूँ  सुनिए – भगवान विष्णु गरुड़ को भेजने के पश्चात वहा पर एक दुर्बल शरीर वाले तपस्वी को देखा | उस तपस्वी ने भगवान विष्णु के निकट आकर उनका दर्शन किया और उन्हें प्रणाम किया , इन महर्षि का नाम अग्निबिंदु  ऋषि था | अग्निबिंदु ऋषि अपने आराध्य  भगवान विष्णु को देखकर उनकी स्तुति करने लगे –

 

।। अग्निबिंदुरुवाच ।। ।।

ओं नमः पुंडरीकाक्ष बाह्यांतः शौचदायिने ।।

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।।

नमामि ते पदद्वंद्वं सर्वद्वंद्वनिवारकम् ।।

निर्द्वंद्वया धिया विष्णो जिष्ण्वादि सुरवंदित ।।

यं स्तोतुं नाधिगच्छंति वाचो वाचस्पतेरपि ।।

तमीष्टे क इह स्तोतुं भक्तिरत्र बलीयसी ।।

अपि यो भगवानीशो मनःप्राचामगोचरः ।।

समादृशैरल्पधीभिः कथं स्तुत्यो वचः परः ।।

यं वाचो न विशंतीशं मनतीह मनो न यम् ।।

मनो गिरामतीतं तं कः स्तोतुं शक्तिमान्भवेत् ।।

यस्य निःश्वसितं वेदाः स षडंगपदक्रमाः ।।

तस्य देवस्य महिमा महान्कैरवगम्यते ।।

अतंद्रितमनोबुद्धींद्रिया यं सनकादयः ।।

ध्यायंतोपि हृदाकाशे न विंदंति यथार्थतः ।।

नारदाद्यैर्मुनिवरैराबाल ब्रह्मचारिभिः ।।

गीयमानचरित्रोपि न सम्यग्योधिगम्यते ।।

तंसूक्ष्मरूपमजमव्ययमेकमाद्यं बह्माद्यगोचरमजेयमनंतशक्तिम् ।।

नित्यं निरामयममूर्तमचिंत्यमूर्तिं कस्त्वां चराचर चराचरभिन्न वेत्ति ।।

एकैकमेव तव नामहरेन्मुरारे जन्मार्जिताघमघिनां च महापदाढ्यम् ।।

दद्यात्फलं च महितं महतो मखस्य जप्तं मुकुंदमधुसूदनमाधवेति ।।

नारायणेति नरकार्णव तारणेति दामोदरेति मधुहेति चतुर्भुजेति ।।

विश्वंभरेति विरजेति जनार्दनेति क्वास्तीह जन्म जपतां क्व कृतांतभीतिः ।।

ये त्वां त्रिविक्रम सदा हृदि शीलयंति कादंबिनी रुचिर रोचिषमंबुजाक्षम् ।।

सौदामनीविलसितांशुकवीतमूर्ते तेपि स्पृशंति तव कांतिमचिंत्यरूपाम् ।।

श्रीवत्सलांछनहरेच्युतकैटभारे गोविंदतार्क्ष्य रथकेशवचक्रपाणे ।।

लक्ष्मीपते दनुजसूदन शार्ङ्गपाणे त्वद्भक्तिभाजि न भयंक्वचिदस्ति पुंसि ।।

यैरर्चितोसि भगवंस्तुलसीप्रसूनैर्दूरीकृतैणमदसौरभदिव्यगंधैः ।।

तानर्चयंति दिवि देवगणाःसमस्ता मंदारदामभिरलं विमलस्वभावान् ।।

यद्वाचि नाम तव कामदमब्जनेत्र यच्छ्रोत्रयोस्तव कथा मधुराक्षराणि ।।

यच्चित्तभित्तिलिखितं भवतोस्ति रूपं नीरूपभूपपदवी नहि तैर्दुरापा ।।

ये त्वां भजंति सततं भुविशेषशायिंस्ताञ्छ्रीपते पितृपतींद्र कुबेरमुख्याः ।।

वृंदारका दिवि सदैव सभाजयंति स्वर्गापवर्गसुखसंततिदानदक्ष ।।

ये त्वां स्तुवंति सततं दिवितान्स्तुवंति सिद्धाप्सरोमरगणा लसदब्जपाणे ।।

विश्राणयत्यखिलसिद्धिदकोविना त्वां निर्वाणचारुकमलां कमलायताक्ष ।।

त्वं हंसि पासि सृजसि क्षणतः स्वलीला लीलावपुर्धर विरिंचिनतांघ्रियुग्म।।

विश्वं त्वमेव परविश्वपतिस्त्वमेव विश्वस्यबीजमसि तत्प्रणतोस्मि नित्यम् ।।

स्तोता त्वमेव दनुजेंद्ररिपो स्तुतिस्त्वं स्तुत्यस्त्वमेव सकलं हि भवानिहैकः ।।

त्वत्तो न किंचिदपि भिन्नमवैमि विष्णो तृष्णां सदा कृणुहि मे भवजांभवारे ।।

 

इस प्रकार भगवान विष्णु की स्तुति करके महातपस्वी अग्निबिंदु ऋषि चुप हो गए |तब वर देने वाले भगवान विष्णु ने मुनि से बोले – मै तुमपर प्रसन्न हु ,तुम कोई वर मांगो |’

अग्निबिंदु जी बोले – यदि आप मुझपर प्रसन्न है तो आप सर्वव्यापी होकर समस्त जन्तुओ मनुष्यो के हितके  लिए इस पंचनद तीर्थ में निवास  करे

इसप्रकार दुसरो के उपकार के लिए मांगे हुए वर को सुनकर भगवान विष्णु बड़े प्रसन्न हुए और बोले – मुनिश्रेष्ठ तुम जैसा चाहते हो वैसा ही होगा |मै काशीपुरी के प्रति भक्ति रखने वाले मनुष्यो को मुक्ति मार्ग का उपदेश करता रहूंगा और यह काशीपुरी जब तक यहाँ है तबतक मै यहीं रहूँगा |

 

मुनि ने कहा – आप इस तीर्थ में मेरे नाम से निवास करे

 

विष्णु जी ने कहा – हे महामुने यहाँ पर मै तुम्हारे और लक्ष्मी के नाम से रहूँगा अर्थात तीनोलोको में बिंदुमाधव के नाम से मेरी ख्याति होगी | जो पुण्यात्मा इस तीर्थ में स्नान करके मेरा दर्शन करेगा उसके समस्त पाप का नाश हो जायेगा | उसके पास सदैव धनलक्ष्मी और मोक्षलक्ष्मी का वास होगा | हे मुने ये तीर्थ तुम्हारे नाम से भी प्रसिद्ध होकर बिंदुतीर्थ कहलायेगा | जो व्यक्ति कार्तिक मास में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सूर्योदय से पूर्व बिंदुतीर्थ में स्नान करेगा उसे यमराज का भय नहीं रहेगा |जो व्यक्ति मुझे पंचामृत में स्नान कराएगा वह एक कल्प तक क्षीरसागर में निवास करेगा | जो मेरी भक्ति करते हुए विश्वनाथ से द्वेष करेगा उसे पिशाचयोनि प्राप्त होगी | अतः किसी भी मनुष्यो को मुझमे और विश्वनाथ में भेद नहीं करना चाहिए|

 

भगवान विष्णु के मुख से यह बात सुनकर अग्निबिन्दु ने श्री बिंदुमाधव के चरणों में प्रणाम किया और पूछा – भगवान आप काशी में कितने स्वरूपों में स्थित है उनका वर्णन करने की कृपा करे |

 

इस प्रकार आज हम लोगो ने पंचगंगा घाट , बिंदुमाधव के रहस्य ,उत्पति और माहात्म्य का अध्ययन किया आगे काशी में स्थित अन्य विष्णु तीर्थो को पढ़ेंगे

 

जय श्री कृष्णा

 

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