स्कन्द पुराण | काशी खंड

॥ ॐ ॥

देवराज सेव्यमान पावनाङ्घ्रि पङ्कजं व्यालयज्ञ सूत्रमिन्दु शेखरं कृपाकरम् ।
नारदादि योगिबृन्द वन्दितं दिगम्बरं काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे 

नमः शिवाय मेरे प्रिय पाठकगण हम सभी पिछले कुछ दिनों से काशी के बारे में जानने की इच्छा से काशी की अनसुनी कहानी नामक सीरीज में काशी की अनोखी कथा को जानने का प्रयास कर रहे है और यदि सच कहूँ तो मैं बहुत सौभाग्य शाली हु की आपलोग के कारण और बाबा विश्वनाथ की अनुकंपा से मुझे काशी के  बारे में जानने का अवसर प्राप्त हो रहा है ये जबकि हमने पूर्व में जाना कि भगवन विश्वनाथ की आज्ञा के बिना कोई यंहा रहना तो दूर आ भी नही सकता हम तो उनकी कथा का लेखन काशी से ही कर रहे है इसमे उनकी आज्ञा नही तो और क्या है ।

कुछ  दिन पुर्व एक सन्त महात्मा ने अपनी कथा में कहा था कि प्रत्येक हिन्दू को रोज कोई न कोई आर्ष ग्रंथ का थोड़ा अध्ययन जरूर करना चाहिए मेरी भी इच्छा थी करने  की परन्तु आज आपके कारण मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है मैं आप सभी का ऋणी हूँ ।

पूर्व के कड़ियों में हमने पढ़ा कि किस प्रकार बिना शिव के आज्ञा के कोई काशी में प्रवेश नही कर सकता चाहे वो कितना भी बढ़ा पुण्यात्मा क्यों न हो इसी क्रम में कार्तिकेय जी अगस्त मुनि से कहते है की काशी में आवंले के दाने के बराबर दिया हुआ दान पहाड़ के समान पूण्य देने वाला होता हैं जो योगीजन अनेक वर्षों के तपस्या के  योगबल से मुक्ति को प्राप्त को  होते  है वो मुक्ति यहाँ केवल मृत्यु मात्र होने पर प्राप्त हो जाती है । यहां स्वयं भगवान भैरव कपालमोचन तीर्थ (लाट भैरव) को आगेकर के सभी भक्तजनो के पाप का भक्षण करते है भैरव जी काशीवासियों के काल का भक्षण करते है इसीलिए इनको कालभैरव कहा जाता है।

अगस्त जी से कहते है कि हे भग़वन आप मुझे दण्ड्पाणिके उत्त्पति के बारे मे बताये ।

कार्तिकेय जी कहते है – हे मुने प्राचींकाल मे गंधमादन पर्वत पर रत्नभद्र नाम का एक धर्मात्मा यक्ष रहता था उसको पुर्णभद्र नाम का पुत्र हुआ कुछ समय के बाद रत्नभद्र ने अपने शरीर का त्त्याग कर के शिव के धाम पहुंच गया । पिताकी मृत्यु के बाद पुर्णभद्र अपने पिता के समस्त सामग्रियों का उपभोग करने लगा केवल एक वस्तु उसको नही मिली जिसको पुत्र कहते है, जो गृह्स्थाश्रम का श्रृंगार और पितरो को सुख देने वाला होताहै एक दिन वो अपने पत्नी को बोला किस प्रकार से मुझे पुत्रकी प्राप्ती होगी ।

तब उसकी पत्नी ने कहा कि आप तो ज्ञानी है फिरभी इतना खेद मत करो भगवान शिव सब कुछ देनेवाले है आप उनकी आरधना एवं पुजा करो क्योंकि महर्षि शिलाद ने भगवान शिव कि कृपा से मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाला पुत्र प्राप्त कर लिया आप भी करो ।

तब पुर्ण्भद्र ने महादेव की आराधना प्रारम्भ किया वह संगीत कला का ज्ञाता था वह अपनीसंगीत विद्या से कुछ दिनोमे भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया और उनकी कृपा से अपने मनोरथ को पुरा कर लिया उसने अपने पत्नी के गर्भ से एक पुत्रको प्राप्त किया और उसका नाम हरिकेश रखा जब बालक 8 वर्ष का हुआ तभी से भगवान शिव का आराधाना करने लगा दिन रात भगवान शिव का पुजन और ध्यान करता रहता और किसी चीज मे उसका मन नही लगता ।सभी स्थानो पर भगवान शिव को ही देखता था । सोते , उठते , चलते, खाते पीते सब मे भगवान शंकर को ही देखता । अपने पुत्र कि एसी दशा देखकर उसके पिता ने कहा ‌- अब तुम घर के कामकाज मे लगो यह सब धन दौलत तुम्हारा ही है इसका भोग करो बाद मे वृद्धावस्था मे भक्तियोग करना । जब पिता बार बार उसे एसी शिक्षा देने लगे तब हरिकेश घर से भाग कर काशीपुरी चला गया और वहा तपस्या करने लगा । एक दिन उसी वन मे शिव पार्वती उसी वन मे भ्रमण कर रहे थे तभी माँ पार्वती की नजर हरिकेश पर पड़ी उन्होने महादेव जी से निवेदन किया की प्रभू ये आपका तपस्वी  भक्त है इसे वरदान देकर कृतार्थ करें। ये आपकी प्रसन्न्ता के लिये ही तपस्या कर रहा है तब भगवान शिव ने उस के सिर पर अपना हाथ रखा उनके स्पर्श को पाते ही वो आंखे खोल दिया और भगवान शिव को देखकर उनकी स्तुति करने लग।

उसकी स्तुति सुनकर भगवान शिव ने उसको वरदानदेते हुए कहा आज से तुम मेरे काशी क्षेत्र के द्ण्डनायक हो । इस समय तुम्हारानाम दण्डपाणी होगा । मेरी आज्ञा से तुम काशी के गणोंपर शासन करोगे । यह उत्तम क्षेत्र आज से तुम्हारे अधिन हुआ जो ज्ञानवापी तीर्थ देहली विनायक और तुम्हारा दर्शन कर के मेरा दर्शन करेगा उसे मेरी असीम दया का अनुभव होगा ।तुम यहा से दक्षीण दिशा मे मेरे नेत्रो के सामने निवास करो और पापी मनुष्य को दण्ड और अपने भक्तो को अभय दान देते रहो।

कार्तिकेयजी कहते है ‌‌- हे मुने इस  प्रकार दण्डपाणी को वरदान देकर भगवान  शिव वहाँ से अंतर्धान हो गये । तभी से यक्षराज हरिकेश दण्डनायक के पद पर काशी में है। बिना उनके आज्ञा के कोई भी काशी में प्रवेश नही कर सकता । मै भी उनके प्रति दोष दृष्टि रखने के कारण  यहाँ  काशी से बाहर रहने को विवश हुँ क्योंकि मैंने काशी में रहकर कभी उनका  आदर नही किया । हे मुने! यदि कोइ दण्डपाणी अष्टक का  पाठ करके काशी में  रहने का प्रार्थना करें तो उसे काशीवास का सौभाग्य प्राप्त होता है।

इस प्रकार मैंने हम लोग ने दण्डॅपाणी भैरव की उत्पत्ति और उनके पुर्वजन्म के बारे मे  जाना आगे  और अन्य तीर्थोके बारेमे जानने का प्रयास करेंगे ।

जय श्री कृष्णा