“युधिष्ठिर का यज्ञ और सुनहरा नेवला”
कुरुक्षेत्र युद्ध में विजय पाने की खुशी में पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया। दूर-दूर से हजारों लोग आए। बड़े पैमाने पर दान दिया गया। यज्ञ समाप्त होने पर चारों तरफ पांडवों की जय-जयकार हो रही थी।
तभी एक नेवला आया। उसका आधा शरीर सुनहरा था और आधा भूरा। वह यज्ञ भूमि पर इधर-उधर लोटने लगा। उसने कहा, ‘तुम लोग झूठ कहते हो कि इससे वैभवशाली यज्ञ कभी नहीं हुआ। यह यज्ञ तो कुछ भी नहीं है।’
लोगों ने कहा, ‘क्या कहते हो, ऐसा महान यज्ञ तो आज तक संसार में हुआ ही नहीं’
नेवले ने कहा, ‘यज्ञ तो वह था जहां लोटने से मेरा आधा शरीरसुनहरा हो गया था।’ लोगों के पूछने पर उसने बताया, ‘एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था।
कथा कहने से जो थोड़ा बहुत मिलता था, उसी में सब मिल जुल कर खाते थे। एक बार वहां अकाल पड़ गया। कई दिन तक परिवार में किसी को अन्न नहीं मिला। कुछ दिनों बाद उसके घर में कुछ आटा आया।
ब्राह्मणी ने उसकी रोटी बनाई और खाने के लिए उसे चार भागों में बांटा। किंतु जैसे ही वे भोजन करने बैठे, दरवाजे पर एक अतिथि आ गया।
ब्राह्मण ने अपने हिस्से की रोटी अतिथि के सामने रख दी, मगर उसे खाने के बाद भी अतिथि की भूख नहीं मिटी। तब ब्राह्मणी ने अपने हिस्से की रोटी उसे दे दी। इससे भी उसका पेट नहीं भरा तो बेटे और पुत्रवधू ने भी अपने-अपने हिस्से की रोटी दे दी।
अतिथि सारी रोटी खाकर आशीष देता हुआ चला गया। उस रात भी वे चारों भूखे रह गए। उस अन्न के कुछ कण जमीन पर गिरे पड़े थे। मैं उन कणों पर लोटने लगा तो जहां तक मेरे शरीर से उन कणों का स्पर्श हुआ, मेरा शरीर सुनहरा हो गया।
तब से मैं सारी दुनिया में घूमता फिरता हूं कि वैसा ही यज्ञ कहीं और हो, लेकिन वैसा कहीं देखने को नहीं मिला इसलिए मेरा आधा शरीर आज तक भूरा ही रह गया है।’ उसका आशय समझ युधिष्ठिर लज्जित हो गए।
श्रद्धापूर्वक दान देने वाले मनुष्य में यदि एक हजार देने की शक्ति हो तो वह सौ का दान करे, सौ देने की शक्ति वाला दस का दान करे, तथा जिसके पास कुछ न हो, वह अपनी शक्ति के अनुसार जल ही दान कर दे तो इन सबका फल बराबर माना गया है।
‘राजा रन्तिदेव के पास जब कुछ भी नहीं रह गया, तब उन्होंने शुद्ध हृदय से केवल जल का दान किया था। इससे वे स्वर्गलोक में गये थे।
‘राजा नृग ने ब्राह्मणों को हजारों गौएं दान की थीं; किंतु एक ही गौ दूसरे की दान कर दी, जिसके कारण अन्यायत: प्राप्त द्रव्य का दान करने के कारण उन्हें नरक में जाना पड़ा।
‘उशीनर के पुत्र उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजा शिबि श्रद्धापूर्वक अपने शरीर का मांस देकर भी पुण्यात्माओं के लोकों में अर्थात स्वर्ग में आनन्द भोगते हैं।
मनुष्यों के लिये धन ही पुण्य का हेतु नहीं है। साधु पुरुष अपनी शक्ति के अनुसार सुगमतापूर्वक पुण्य का अर्जन कर लेते हैं। न्याय पूर्वक संचित किये हुए अन्न के दान से जैसा उत्तम फल प्राप्त होता है, वैसा नान प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करने से भी नहीं सुलभ होता।
आज के युग में दान तन से, मन से, बुद्धि से, अपना सम्पूर्ण जीवन लगाकर (प्रचारक जीवन) अथवा समाज में, समाज के साथ रहते हुए , समाज हित में सामाजिक समरसता को बढ़ाने वाले कार्य, उन पर खर्च किये समय का उत्तम दान ही सर्वश्रेष्ठ दान है ।


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