तीनो लोको मे काशी सर्वश्रेष्ठ है, काशी में ॐकारेश्वर लिंग श्रेष्ठ है, और उसमे भी यह त्रिलोचन लिंग सर्वश्रेठ है।

     नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।

नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नम:शिवाय

काशी के अनसुनी कहानी के समस्त पाठकों को सादर प्रणाम हम सभी इस सीरिज के अंतर्गत काशी के रहस्यों का अध्ययन शास्त्रों के द्वारा कर रहे है, जिसमे पुर्व के अध्यायों मे पढा कि जब पार्वती जी ने भगवान शिव के काशी के  स्थानों के बारे मे पुछा था तो भगवान शिव ने १४ स्थानों के बारे मे बताया और और उसमें से प्रथम ॐकारेश्वर लिंग का विस्तृत अध्ययन भी हमने किया है अब उसी क्रम मे हम द्वितीय लिंग त्रिलोचन लिंग का अध्ययन करेंगे जो कि गायघाट मोहल्ले मे स्थित है ।

महादेव जी बोले – पार्वती ! पृथ्वी पर यह आनंदवन बहुत श्रेष्ठ है इसमें भी सभी तीर्थ स्थान श्रेष्ठ है । तीर्थों में भी मुक्तिदायक ॐकारेश्वर लिंग है और कल्याणस्वरूप लिंग है त्रिलोचन लिंग । जिस प्रकार तेजस्वियों मे सूर्य और दर्शनीय वस्तुओं मे चंद्रमा श्रेष्ठ है , उसी प्रकार समस्त लिंगों में त्रिलोचन लिंग श्रेष्ठ है । यह त्रिलोचन लिंग ज्ञान की वृद्धि करने वाला है , वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया ) को पिलपिला तीर्थ मे स्नान करके जो व्यक्ति त्रिलोचनलिंग की पुजा करता है और वहां के ब्राह्मणों को पितरों के निमित्त घड़े का दान करता है वो बाद मे मेरे आगे चलने वाले पार्षद होता है ।

स्कंद जी कहते है – प्राचीन रथंतर कल्प की बात है , भगवान त्रिलोचन के मणिमाणिक्य निर्मित मंदिर मे कभी कबुतरों का एक जोड़ा रहता था । वे दोनो कबुतर प्रतिदिन  तीनों काल मे मंदिरकी परिक्र्मा करते हुए सब ओर उड़ते और अपने पंखोंकी हवा से मंदिरमें लगी हुई धुलको दुर किया करते थे । भक्तों के द्वारा पढ़ा हुआ त्रिलोचन नाम सदा  उनके कानों मे पड़ा करता था , सदा उनके नेत्र भगवान के दिव्य आरती का दर्शन किया करते थे । कभी-कभी तो वे युगलपक्षी दर्शन के लिये दाना चुगना भी छोड देते थे,और स्थिरचित्त होकर दर्शन किया करते थे , वहां से उड़कर किसी दुसरे स्थान को नही जा पाते थे । भक्तजनों से भरे हुए उस मंदिर के चारों ओर चावल चुगते हुए वो मंदिर कि परिक्रमा भी कर लिया करते थे । इस प्रकार त्रिलोचन के समीप रहते हुए उन युगलपक्षियों को बहुत वर्ष व्यतीत हो गये।

एकसमय वो दोनो मंदिर के भीतर सुखपुर्वक बैठे थे तभी एक बाज की क्रुरदृष्टि उन पर पड़ी , और वो उस मंदिर के चक्कर लगाने लगा । तब डरी हुई कबुतरी ने अपने स्वामी से कहा की यह स्थान दुष्टकि दृष्टी से दुषित हो गया है , अत: इसे त्याग देना चाहिये । यह सुनकर कबुतरने कहा – ‘प्रिये! वह मेरा क्या कर लेगा ।‘

कबुतरी कबुतर को बहुत समझाती है पर वह नही मानता है।   दुसरे दिन बाज आकर  कबुतर के मार्ग को रोककर उससे कहा – हे ! कपोत या तो मुझसे युद्ध कर या फिर इस कबुतरी को छोडकर  यहां से भाग । इसप्रकार बाज के फटकारने और पत्नी के उत्साह दिलाने पर वह बाज से लड़ने लगता  है । बेचारा भुख प्यास से पीड़ित था , अत: कुछ ही समय पश्चात बाज कबुतर को अपनेचोंच मे दबा लिया और कबुतरी को अपने पंजों से पकड़ कर आकाश में उड़ गया ।

तब कबुतरी ने कहा – नाथ ! यह स्त्री है ,ऐसा समझकर आपने मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिया। इसीसे आज इस अवस्था को प्राप्तहुए है । क्या करूँ,मै अबला हूं , परंतु अब भी मै तुम्हारे हित की बात कहती हुँ । तुम बिना विचारे ही उसका पालन करो । जबतक मै इसके चोंच में पड़ी हुँ और यह जबतक पृथ्वीपर नही पहुंच जाता तबतक तुम अपने इस शत्रु के पंजे पर चोंच मारो। पत्नीकी यह बात सुनकर कबुतर ने वैसा ही किया । फिर तो पैर में पीड़ा होने से  बाज बहुत देर तक चीं-चीं करता रहा । इतने में ही कपोती उसकें मुख से छुटकर उड़ गयी । इधर पाँव की अंगुलियों में दर्द के कारण कबुतर भी छुटकर गिर पड़ा । (अत: बुद्धिमान पुरुषों को विपित्तिमें भी कभी उद्योग नहीं छोड़ना चाहिये क्योंकि उद्यमी पुरुष दुर्बल हो तो भी सफलता के भागी होते है ।) तदनंतर वे दोनों पक्षी कालयोग से मुक्तिपुरी अयोध्या में सरयु किनारे मृत्यु को प्राप्त हुए । उनमें से कबुतर एक गंधर्व हुआ । वह मंदारदामा का पुत्र था और उसका नाम परिमलालय रखा गया था । वह कुमारावस्था से  ही शिवजी की भक्ति में तत्पर हुआ । उसने अपने मन और इंद्रियोंको पूर्णत: जीत लिया था । भगवान शिव कि कृपा और पुर्वजन्म के अभ्यास से वह नियम लिया था कि “जब तक मेरे शरीर मे शिथिलता नही आ जाती तबतक  मै प्रात:काल काशी मे जाकर भगवान त्रिलोचनके दर्शन किये बिना थोड़ा भी भोजन नही करूँगा ।“ ऐसी प्रतिज्ञा लेकर वह परिमलालय प्रतिदिन काशी में त्रिलोचन महादेव का दर्शन करने आता था ।

उधर वह कबुतरी भी पाताल मे नागराज रत्नद्वीप के घर में कन्यारुप से उत्पन्न हुई। उसका नाम रत्नावली रखा गय । उसकी दो सखियाँ थी, एक का नाम प्रभावती और दुसरे का नाम कलावती था ।ये  दोनो सदा रत्नावली के साथ रहती थी । इधर रत्नावली भी अपने पिताकी शिवभक्ती देखकर यह नियम लिया‌‌ ‌‌- “मैं प्रतिदिन अपनी दोनो सखियोंके साथ काशी में त्रिलोचनकी पुजा करके ही मौन व्रत का त्याग करुँगी, अन्यथा नही ।“ इसप्रकार वह नागकन्या अपनी दोनो सखियों सहित प्रतिदिन काशी में आती और त्रिलोचन महादेव की पुजा करके लौट जाती थी ।

एक समय वैशाख मास की तृतीया को उपवासपुर्वक रात्रि मे जागरण एवं कथा इत्यादि सुनकर प्रात:काल त्रिलोचन महादेव की पुजा करके वहीं  मंदिर में सो गयी । उस समय भगवान त्रिलोचन उस लिंग मे से निकलकर बोले- “कन्याओं तुम सब उठो।“ तब वह सब उठकर जिनके आने की कोई सम्भावना नही थी उन , भगवान त्रिलोचन को प्रत्यक्ष देखा और उनकी स्तुति करने लगी –

जयशंभो जयेशान जय सर्वग सर्वद ।।
जय त्रिपुरसंहर्तर्जयांधकनिषूदन ।।

जय जालंधरहर जय कंदर्पदर्पहृत् ।।
जय त्रैलोक्यजनक जय त्रैलोक्यवर्धन ।।
जय त्रैलोक्यनिलय जय त्रैलोक्यवंदित ।।
जय भक्तजनाधीन जय प्रमथनायक ।।

जय त्रिपथगापाथः प्रक्षालितजटातट ।।
जय चंद्रकलाज्योतिर्विद्योतितजगत्त्रय ।।
जय सर्पफणारत्न प्रभाभासितविग्रह ।।
जयाद्रिराजतनया तपःक्रीतार्धदेहक ।।
जय श्मशाननिलय जय वाराणसीप्रिय ।।
जयानंदवनाध्यासि प्राणिनिर्वाणदायक ।।
जय विश्वपते शर्व शर्वरीपरिवर्जित ।।
जय नृत्यप्रियेशोग्र जय गीतविशारद ।।
जय प्रणवसद्वास जय धाम महानिधे ।।
जय शूलिन्विरूपाक्ष जय प्रणतसर्वद ।।
विधिः सर्वविधिज्ञोपि न त्वां स्तोतुं विचक्षणः ।।
वाचो वाचस्पतेर्नाथ त्वत्स्तुतौ परिकुंठिताः ।।
विदंति वेदाः सर्वज्ञ न त्वां नाथ यथार्थतः ।।
मनतीह मनो न त्वामनंतं चादिवर्जितम् ।।
नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं नमोनमः ।।
त्रिलोचन नमस्तुभ्यं त्रिविष्टप नमोस्तु ते ।।

फिर उन कुमारियों ने पृथ्वी पर गिर दण्डवत प्रणाम किया । तब भगवान शिव ने कहा मंदारदामा का पुत्र परिमलालय समस्त विद्याधरों में श्रेष्ठ है , वही तुमलोगो का पति होगा । तुम तींनो मेरी भक्त हो और वह तरुण भी मुझमें भक्ति रखता है । तुम चारों इस जीवन का अंत होने पर मोक्ष प्राप्त करोगे । पुर्वकाल मे तुम सबने मेरी भक्तीकी है , इसीसे यह निर्मल जन्म प्राप्त हुआ है।

भगवान शंकर के ऐसा कहने पर उन कन्याओं ने प्रसन्नचित्त होकर हाथ जोड़कर पुछ- नाथ!हम चारों ने पुर्वजन्म में किस प्रकार से आपकी सेवा की है ?

भगवान शिव बोले –नागकन्याओं सुनो! यह रत्नावली पुर्वजन्म मे कबुतरी थी और परिमलालय इसका पति कबुतर था । और इनके पुर्वजन्म के वृतांत को विस्तार से बतलाया । और तुमलोगो में जो प्रभावती और कलावती है , ये तीसरे जन्म पहले महर्षि चारण्य की पुत्रियाँ थीं । दोनो मे बहुत प्रेम था इनके पिता चारण्य ने इनका विवाह आमुष्यायण के पुत्र नारायण से कर दिया । नारायण अभी किशोरावस्था के थे , एक दिन वे वन मे लकड़ियाँ लाने के लिये गये थे ,इतनेमें एक सर्प ने उनकों काट लिया ।चारण्य की दोनो पुत्रियाँ वैधव्य जैसे महान दु:ख से अत्यंत दु:खित हो गयी । कुछ समय पश्चात किसी ऋषि के आश्रम में जाकर इन कन्याओंने मोहवश बिना ऋषि के दिये कुछ केले का फल तोड़ लिये । फल के चोरी के कारण ये दोनो दुसरे जन्ममे वानरी का जन्म हुआ ,परंतु इन्होने अपने शील और सदाचार की रक्षाकी थी , अतः उस धर्म के प्रभाव से इनका जन्म काशी मे हुआ । वे नारायण ब्राह्मण सर्प के काटे  जाने पर भी अपने पिता की सेवा के कारण काशी में कबुतर हुए । इसप्रकार यह परिमलालय जन्मांतर मे इन दोनो का भी पति रह चुका है । इस समय भी तुम तीनों का पति होगा । इस मंदिरके पीछे जो बरगद का पेड़ है उसीपर ये दोनो वानरियाँ रहती थी  । अनेक बार मंदिर कि परिक्रमा करते हुए यह अनेकों शिवलिंगो का दर्शन करती थी । एक दिन किसी ने इनको फंसाकर बांध लियाऔर कालवश इनकी मृत्यु हो गयी, काशीवास और त्रिलोचन के दर्शन और प्रदक्षिणा के प्रभावसे ये दोनो नागकन्या हुईं। अब तुम तीनो परिमलालय को पति रुप से प्राप्त करोगी और समस्त प्रकार के सुख का उप्भोग करके अंत मे काशीमे आकर ही मृत्यु को प्राप्त हो मुक्ति को प्राप्त करोगी ।काशी मे आकर थोड़ा सा भी पुण्य कर्महो तो मेरे प्रभाव से उसका फल मोक्ष ही होता है । तीनो लोको मे काशी सर्वश्रेष्ठ है, काशी में ॐकारेश्वर लिंग श्रेष्ठ है , और उसमे भी यह त्रिलोचन लिंग सर्वश्रेठ है।  अत: काशी में सदा ही प्रयत्नपुर्वक त्रिलोचन की पुजा करनी चाहिये । ऐसा कहकर भगवान शिव त्रिलोचन लिंगमे समाहित हो गये । वे कन्याएँ भी अपने घर चली गयीं और माता के आगे सब बातें बताया ।

तदनंतर एक दिन वैशाखमास की महायात्रा में गंधर्व और नाग त्रिलोचन मंदिर मे एकत्र हुए । महादेव कि कृपा से दोनो ने परस्पर कुल पुछ कर परिमलालयके साथ तीनो का विवाह कर दिया । विवाह सम्पन्न करके सभी अपने अपने घर चले गये । श्रीमान परिमलालय उन नागकन्याओं के साथ पर्याप्त सुख भोगने के पश्चात काशी में आकर भगवान त्रिलोचनकी  सेवामें संलग्न हुए और कुछ समय पश्चात उसी लिंग मे समहित हो गये ।

कार्तिकेयजी कहते है-  कलियुग मे भगवान त्रिलोचन की महिमा महादेव जी ने गुप्त रखी है इसलिये जिनमें सात्विकभाव कि कमी है वो मनुष्य उस शिवलिंग कि उपासना नही कर पाते है ।

इसप्रकार आज हमने शिव पार्वती सम्वाद के रुप मे त्रिलोचन महात्म्य का अध्ययन किया है । अगले क्रम मे केदारेश्वर लिंग का अध्ययन करेंगे ।

हर हर महादेव 

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