कैसे आये ॐकारेश्वर महादेव काशी में ?

जग कर्ता-धर्ता जगदीश्वर ।

विश्वरूप विश्वनाथ विशेश्वर ।।

लिंगरूप धर प्रगटेव भूपर ।

प्रथम महालिंग ओंकारेश्वर ।।

जग जन्मा तुमसे परमेश्वर ।

जगत रचैता हैं श्री हरि हर ।।

काशी की अनसुनी कहानी के सभी पाठकों को सादर प्रणाम है हम सभी इस सीरीज के अंतर्गत काशी के रहस्यों का अध्ययन शास्त्रो के द्वारा कर रहे है जिसमे भगवान शिव ने पार्वती जी को काशी में स्थित अपने 14 स्थानों का वर्णन किया जिसका दर्शन करने से मनुष्य के समस्त पाप क्षण भर में दूर हो जाते है जिसका अध्यन हमने पिछले भाग में पढ़ा अब पार्वती जी उनके एक एक स्थानों का वर्णन विस्तार से पूछा तो भगवान शिव अपने प्रथम स्थान ॐ कारेश्वर शिवलिंग का वर्णन किया जो काशी में मछोदरी स्थान के पास स्थित है ।

महादेव जी देवी पार्वती से कहते कहते है- हे महादेवी ! पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने काशी में आकर समाधि लगाकर तपस्या की । तपस्या करते करते जब 1000 युग बीत गया तब सातो पातालों को भेद कर के एक दिव्य ज्योति वहां प्रकट हुई और सम्पूर्ण संसार मे व्याप्त होने लगी । ब्रह्मा जी ने जब समाधि त्याग कर के आंख खोली तब सामने आदि अक्षर ॐकार को देखा । उसी ॐ कार स्वरूप में ब्रह्मा जी ने समस्त वेद स्वरूप वृषभध्वजेश्वर भगवान शिव का दर्शन किया और उनकी स्तुति करने लगे ।

ब्रह्मा जी बोले –


।। ब्रह्मा कृत ज्ञान दायक स्तोत्र ।।

नम ओंकाररूपाय नमोऽक्षरवपुर्धृते ।।

नमोऽकारादिवर्णानां प्रभवाय सदाशिव ।। १ ।।

अकारस्त्वमुकारस्त्वं मकारस्त्वमनाकृते ।।

ऋग्यजुः सामरूपाय रूपातीताय ते नमः ।। २ ।।

नमो नादात्मने तुभ्यं नमो बिंदुकलात्मने ।।

अलिंगलिंगरूपाय सर्वरूपस्वरूपिणे ।। ३ ।।

नमस्ते धाम निधये निधनादिविवर्जित ।।

नमो भवाय रुद्राय शर्वाय च नमोस्तुते ।। ४ ।।

नम उग्राय भीमाय पशूनां पतये नमः ।।

नमस्तारस्वरूपाय संभवाय नमोस्तु ते ।। ५ ।।

अमायाय नमस्तुभ्यं नमः शिवतराय ते ।।

कपर्दिने नमस्तुभ्यं शितिकंठ नमोस्तु ते ।। ६ ।।

मीढुष्टमाय गिरिश शिपिविष्टाय ते नमः ।।

नमोऽह्रस्वाय खर्वाय बृहते वृद्धरूपिणे ।। ७ ।।

कुमारगुरवे तुभ्यं कुमारवपुषे नमः ।।

नमः श्वेताय कृष्णाय पीतायारुणमूर्तये ।। ८ ।।

धूम्रवर्णाय पिंगाय नमः किर्मीरवर्चसे ।।

नमः पाटलवर्णाय नमो हरिततेजसे ।। ९ ।।

नानावर्णस्वरूपाय वर्णानां पतये नमः ।।

नमस्ते स्वररूपाय नमो व्यंजनरूपिणे ।। 4.2.73.११० ।।

उदात्तायानुदात्ताय स्वरिताय नमो नमः ।।

ह्रस्वदीर्घप्लुतेशाय सविसर्गाय ते नमः ।। ।। ११ ।।

अनुस्वारस्वरूपाय नमस्ते सानुनासिक ।।

नमो निरनुनासाय दंत्यतालव्यरूपिणे ।। १२ ।।

ओष्ठ्योरस्यस्वरूपाय नम ऊष्मस्वरूपिणे ।।

अंतस्थाय नमस्तुभ्यं पंचमाय पिनाकिने ।। १३ ।।

निषादाय नमस्तुभ्यं निषादपतये नमः ।।

वीणावेणुमृदंगादि वाद्यरूपाय ते नमः ।। १४ ।।

नमस्ताराय मंद्राय घोरायाघोरमूर्तये ।।

नमस्तानस्वरूपाय मूर्च्छनां पतये नमः ।। १५ ।।

स्थायिसंचारिभेदेन नमो भावस्वरूपिणे ।।

तालप्रियाय तालाय लास्यतांडवजन्मने ।। १६ ।।

तौर्यत्रिकस्वरूपाय तौर्यत्रिकमहाप्रिय ।। तौर्यत्रिककृतांभक्त्या निर्वाणश्रीप्रदायक ।।१७।।

स्थूलसूक्ष्मस्वरूपाय दृश्यादृश्य स्वरूपिणे ।।

अर्वाचीनाय च नमः पराचीनाय ते नमः ।। १८ ।।

वाक्प्रपंच स्वरूपाय वाक्प्रपंच पराय च ।।

एकायानेकभेदाय सदसत्पतये नमः ।।१९।।

शब्दब्रह्म नमस्तुभ्यं परब्रह्म नमोस्तुते ।।

नमो वेदांतवेद्याय वेदानां पतये नमः ।। 4.2.73.१२० ।।

नमो वेदस्वरूपाय वेदगोचरमूर्तये ।।

पार्वतीश नमस्तुभ्यं जगदीश नमोस्तु ते ।। २१ ।।

नमस्ते देवदेवेश देव दिव्यपदप्रद ।।

शंकराय नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं महेश्वर ।। २२ ।।

नमस्ते जगदानंद नमस्ते शशिशेखर ।।

मृत्युंजय नमस्तुभ्यं नमस्ते त्र्यंबकाय च ।। २३ ।।

नमः पिनाकहस्ताय त्रिशूलायुधधारिणे ।।

नमस्त्रिपुरहंत्रे च नमोंधक निषूदन ।। २४ ।।

कंदर्पदर्पदलन नमोजालंधरारये ।।

कालाय कालकालाय कालकूटविषादिने ।। २५ ।।

विषादहंत्रे भक्तानामभक्तैक विषादद ।।

ज्ञानाय ज्ञानरूपाय सर्वज्ञाय नमोऽस्तुते ।। ।। २६ ।।

योगसिद्धिप्रदोसि त्वं योगिनां योगसत्तम ।।

तपसां फलदोसि त्वं तपस्विभ्यस्तपोधन ।। २७ ।।

त्वमेव मंत्ररूपोसि मंत्राणां फलदो भवान् ।।

महादानफलं त्वं वै महादानप्रदो भवान् ।। २६ ।।

महायज्ञस्त्वमेवेश महायज्ञ फलप्रद ।।

त्वं सर्वः सर्वगस्त्वं वै सर्वदः सर्वदृग्भवान् ।।२९।।

सर्वभुक्सर्वकर्ता त्वं सर्वसंहारकारक ।।

योगिनां हृदयाकाश कृतालय नमोस्तु ते ।। 4.2.73.१३० ।।

त्वमेव विष्णुरूपेण शंखचक्रगदाधर ।।

त्रिलोकीं त्रायसे त्रातः सत्त्वमूर्ते नमोस्तु ते ।। ३१।।

त्वमेव विदधास्ये तद्विधिर्भूत्वा विधानवित् ।।

रजोरूपं समालंब्य नीरजस्कपदप्रद ।। ३२ ।।

त्वमेव हि महारुद्रस्त्वं महोग्रो भुजंगभृत् ।।

त्वमेव हि महाभीमो महापितृवनेचर ।। ३३ ।।

तामसीं तनुमाश्रित्य त्वं कृतांत कृतांतक ।।

कालाग्निरुद्रो भूऽत्वांते त्वं संवर्त प्रवर्तकः ।। ३४ ।।

त्वं पुंप्रकृतिरूपाभ्यां महदाद्यखिलं जगत् ।।

अक्षिपक्ष्मसमुत्क्षेपात्पुनराविः करोप्यज ।।३५।।

उन्मेषविनिमेषौ ते सर्गासर्गैककारणम् ।।

कपालमालाखेलोयं भवतः स्वैरचारिणः ।। ३६ ।।

त्वत्कंठे नृकरोटीयं धूर्जटे या विभासते ।।

सर्वेषामंतदग्धानां सास्फुटं बीजमालिका ।। ३७ ।।

त्वत्तः सर्वमिदं शंभो त्वयि सर्वं चराचरम् ।।

कस्त्वां स्तोतुं विजानाति पुरां वाचामगोचरम् ।। ३८ ।।

स्तोता त्वं हि स्तुतिस्त्वं हि नित्यं स्तुत्यस्त्वमेव च ।।

वेद्म्यों नमः शिवायेति नान्यद्वेऽद्म्येव किंचन ।। ३९ ।।

त्वमेव हि शरण्यं मे त्वमेव हि गतिः परा ।।

त्वामेव प्रणमामीश नमस्तुभ्यं नमो नमः ।। 4.2.73.१४० ।।

इत्युदीर्यासकृद्वेधाः प्रणनाम महेश्वरम् ।।

प्रणवाख्यं महालिंगरूपिणं दंडवत्क्षितौ ।। ४१ ।।


इस प्रकार प्रार्थना कर के साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया ।

तब महादेव जी उनकी स्तुति सुनकर प्रसन्न हुए और उनसे वर मांगने को कहा तब

ब्रह्मा जी बोले – यदि आप मुझपर प्रसन्न है तो इस शिवलिंग में सदा वास करे और यह शिवलिंग ॐ कारेश्वर नाम से काशी में मोक्ष देने वाला हो ।

कार्तिकेय जी कहते है- भगवान शिव ने उन्हें तथास्तु एसा ही होगा ऐसा वरदान दिया और कहा तुम सभी वेदों के निधि हो । जब गंगा और मत्स्योदरी तीर्थ का यहाँ सगंम होगा तब यहाँ एक परम पुण्यकाल का उदय होगा जो सभी लोगो को अक्षय फल प्रदान करेगा । फिर भगवान शिव उसी ॐ कार लिंग में लीन हो गए ।

कार्तिकेय जी कहते है जो स्तुति ब्रह्म जीने ओम्कारेश्वर लिंग की की है उसका पाठ यदि कोई मनुष्य करता  है तो उसे सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है ये सत्य बात है ।

इस प्रकार आज हमने काशी में स्थित ॐ कारेश्वर लिंग के रहस्य को जाना अगले भाग में द्वितीय महालिंग त्रिलोचन महादेव का वर्णन होगा ।

महादेव

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