दुर्गा दुर्गार्ति शमनी दुर्गापद्विनिवारिणी।दुर्गामच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी ||
दुर्गम ज्ञानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला |दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी ||
दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता | दुर्गमज्ञानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी ||
दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी | दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी ||
दुर्गमाङ्गी दुर्गमाता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी | दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्लभा दुर्गधारिणी ||
नामावली ममायास्तु दुर्गया मम मानसः | पठेत् सर्व भयान्मुक्तो भविष्यति न संशयः||
काशी की अनसुनी कहानी के समस्त पाठक गण को सादर प्रणाम काशीविश्वनाथ एव माता अन्नपूर्णा की असीम कृपा से हम काशी के सिद्धपीठों के माहात्म्य का अध्ययन कर रहे है इसी क्रम में आज नवरात्र के शुभ अवसर पर माँ का नाम दुर्गा क्यों पढ़ा इसका अध्यन कार्तिकेय जी ने अगस्त ऋषि को जो बताया उसे जानेंगे |
अगस्त जी ने जब काशी के देवी स्थानों के बारे में सुन कर उसमे दुर्गाकुंड में स्थित दुर्गा मंदिर के बारे में सुना तो उनके मन में जिज्ञासा हुई की माँ का नाम दुर्गा ही क्यों है और वः इस संबंध में कार्तिकेय जी से पूछे |
तब कार्तिकेय जी बोले – पूर्वकाल में दुर्ग नामक एक महान दैत्य हुआ था , और उसने बहुत तपस्या किया और और वरदान में संसार के किसी भी पुरुष जाती से ना मरुँ ऐसा वरदान प्राप्त कर चूका था | इस वरदान के वजह से उसने पुरे त्रिलोक को अपने वश में कर लिया एव सभी जीवो को परेशानकरने लगा | स्वर्ग का राज्य छीन जानेपर देवता लोग भगवान शिव के समीप गए तब शिव की आज्ञा से पार्वतीजी ने देवताओ को अभयदान दिया और स्वयं कालरात्रि को बुलाकर उस दैत्य को लालकरने के लिए भेजा | तब कालरात्रि उसके पास गयी और उन्होंने कहा – दैत्यराज ! तू त्रिभुवन की सम्पति को त्याग दे रसातल में जाकर राज्य कर एव किसी को भी परेशान मत कर |
महाकाली के वचन को सुनकर दैत्यराज दुर्ग क्रोध से जल उठा और अपने सेवकों से बोला- मैंने इसके ही प्राप्ति के लिए देवताओं को बंदी बनाया है और आज सौभाग्य से ये स्वयं आ गयी है तुम शीघ्र इसे बंदी बनाकर मेंरे अन्तः पुर में ले जाओ |
तब कालरात्रि जी बोली – हे दैत्यराज आप ऐसा मत करे हम तो दूत है अपने देवी की, यदि आप मुझे प्राप्त करना चाहते है तो उनसे युद्ध करिये और उनको हराकर मुझे भी प्राप्त कर सकते है |
कालरात्रि की बात सुनकर दुर्गमासुर ने उसे अबला समझकर केवल एक दैत्य को उनको पकड़ने को भेजा , तब देवी ने उसे अपने हुंकार मात्र से भस्मकर दिया, दुर्गमासुर क्रोध से पागल हो गया और अपने ३०००० दैत्यों को आदेश दिया की इस दुष्ट को तुरंत पकड़ कर ले आओ |
परन्तु कालरात्रि ने उसे भी अपने निःशवास वायु से भस्म कर दिया और आकाशमार्ग में विचरण करने लगी | उन्के पीछे हजारो दैत्य लग गए और दुर्गमासुर भी अपनी सेना लेकर उनका पीछा करने का लगा | तब कालरात्रि विंध्याचल(पारवती जी) देवी के पास आयी और उन्हें समस्त घटना से अवगत कराया तबतक दुर्गमासुर भी वहा आ गया और अपने दूतो को आज्ञा दिया की तुम में से जो कोई भी इस विंध्यवासिनी को मेरे समीप ले कर आएगा उसे इंद्र का पद दूंगा |
दानवराज की बात सुनकर सभी दानव देवी को पकड़ने दौड़े | देवी ने अपने शरीर के अंदर से ही सहस्त्रो शक्तियों को उत्पन्न किया और प्रत्येक दैत्यों को आगे बढ़ने से रोक दिया | उस समय ऐसा प्रतीत होता था की सिमा से बाहर निकल रहा समुद्र को माँ ने रोक के रखा हो | इसके बाद दुर्ग दैत्य और माँ के बिच बहुत भयानक युद्ध हुआ | वह दैत्य तरह तरह के जानवरो के वेश बनाकर देवी को परेशान करने लगा | कभी हाथी, शेर , आदि आदि देवी ने सभी उसके स्वरूपों में उसके अंगो के टुकड़े टुकड़े किये तदनंतर उसने भैंसे का स्वरूप बनाया तब देवी ने उसके ऊपर त्रिशूल से आघात किया फिर उसने एक पुरुष का रूप बनया तब देवी ने उसे बाणों से मार दिया | देवी के बाण उसके छाती में घुस गए और वह मृत्यु को प्राप्त हो गया | उसके मृत्यु होते है समस्त देवता ख़ुशी से पुष्पों की वर्षा किये और माता की स्तुति करने लगे –
।। देवा ऊचुः ।।
नमो देवि जगद्धात्रि जगत्रयमहारणे ।।
महेश्वर महाशक्ते दैत्यद्रुमकुठारके ।। ।।
त्रैलोक्यव्यापिनि शिवे शंखचक्रगदाधरि ।।
स्वशार्ङ्गव्यग्रहस्ताग्रे नमो विष्णुस्वरूपिणि ।। ।।
हंसयाने नमस्तुभ्यं सर्वसृष्टिविधायिनि।।
प्राचां वाचां जन्मभूमे चतुराननरूपिणि।। ।।
त्वमैंद्री त्वं च कौबेरी वायवी त्वं त्वमंबुपा ।।
त्वं यामी नैर्ऋती त्वं च त्वमैशी त्वं च पावकी ।। ।।
शशांककौमुदी त्वं च सौरी शक्तिस्त्वमेव च ।।
सर्वदेवमयी शक्तिस्त्वमेव परमेश्वरी ।।।।
त्वं गौरी त्वं च सावित्री त्वं गायत्री सरस्वती ।।
प्रकृतिस्त्वं मतिस्त्वं च त्वमहंकृतिरूपिणी ।। ।।
चेतः स्वरूपिणी त्वं वै त्वं सर्वेंद्रियरूपिणी ।।
पंचतन्मात्ररूपा त्वं महाभूतात्मिकेंबिके ।। ।।
शब्दादि रूपिणी त्वं वै करणानुग्रहा त्वमु ।।
ब्रह्मांडकर्त्री त्वं देवि ब्रह्मांडांतस्त्वमेव हि ।। ।।
त्वं परासि महादेवि त्वं च देवि परापरा ।।
परापराणां परमा परमात्मस्वरूपिणी ।। ।।
सर्वरूपा त्वमीशानि त्वमरूपासि सर्वगे ।।
त्वं चिच्छक्तिर्महामाये त्वं स्वाहा त्वं स्वधामृते ।।।।
वषड्वौषट्स्वरूपासि त्वमेव प्रणवात्मिका ।।
सर्वमंत्रमयी त्वं वै ब्रह्माद्यास्त्वत्समुद्भवाः ।।।।
चतुर्वर्गात्मिका त्वं वै चतुर्वर्गफलोदये ।।
त्वत्तः सर्वमिदं विश्वं त्वयि सर्वं जगन्निधे ।।।।
यद्दृश्यं यददृश्यं च स्थूलसूक्ष्मस्वरूपतः ।।
तत्र त्वं शक्तिरूपेण किंचिन्न त्वदृते क्वचित् ।।।।
मातस्त्वयाद्य विनिहत्य महासुरेंद्रं दुर्गं निसर्गविबुधार्पितदैत्यसैन्यम् ।।
त्राताः स्म देवि सततं नमतां शरण्ये त्वत्तोऽपरः क इह यं शरणं व्रजामः ।। ।।
लोके त एव धनधान्यसमृद्धिभाजस्ते पुत्रपौत्रसुकलत्र सुमित्रवंतः ।।
तेषां यशः प्रसरचंद्रकरावदातं विश्वं भवेद्भवसि येषु सुदृक्त्वमीशे ।। ।।
त्वद्भक्तिचेतसि जनेन विपत्तिलेशः क्लेशः क्व वानुभवती नतिकृत्सु पुंसु ।।
त्वन्नामसंसृतिजुषां सकलायुषां क्व भूयः पुनर्जनिरिह त्रिपुरारिपत्नि ।। ।।
चित्रं यदत्र समरे स हि दुर्गदैत्यस्त्वद्दृष्टिपातमधिगम्य सुधानिधानम्।।
मृत्योर्वशत्वमगमद्विदितं भवानि दुष्टोपि ते दृशिगतः कुगतिं न याति ।। ।।
त्वच्छस्त्रवह्निशलभत्वमिता अपीह दैत्याः पतंगरुचिमाप्य दिवं व्रजंति ।।
संतः खलेष्वपि न दुष्टधियो यतः स्युः साधुष्विव प्रणयिनः स्वपथं दिशंति ।। ।।
प्राच्यां मृडानि परिपाहि सदा नतान्नो याम्यामव प्रतिपदं विपदो भवानि ।।
प्रत्यग्दिशि त्रिपुरतापन पत्नि रक्ष त्वं पाह्युदीचि निजभक्तजनान्महेशि ।।।।
ब्रह्माणि रक्ष सततं नतमौलिदेशं त्वं वैष्णवि प्रतिकुलं परिपालयाधः ।।
रुद्राग्नि नैर्ऋति सदागति दिक्षु पांतु मृत्युंजया त्रिनयना त्रिपुरा त्रिशक्त्यः ।।।।
पातु त्रिशूलममले तव मौलिजान्नो भालस्थलं शशिकला मृदुमाभ्रुवौ च ।।
नेत्रे त्रिलोचनवधूर्गिरिजा च नासामोष्ठं जया च विजयात्वधरप्रदेशम् ।।।।
श्रोत्रद्वयं श्रुतिरवा दशनावलिं श्रीश्चंडी कपोलयुगलं रसनां च वाणी ।।
पायात्सदैव चिबुकं जयमंगला नः कात्यायनी वदनमंडलमेव सर्वम् ।।।।
कंठप्रदेशमवतादिह नीलकंठी भूदारशक्तिरनिशं च कृकाटिकायाम् ।।
कौर्म्यं सदेशमनिशं भुजदंडमैंद्री पद्मा च पाणिफलकं नतिकारिणां नः ।।।।
हस्तांगुलीः कमलजा विरजानखांश्च कक्षांतरं तरणिमंडलगा तमोघ्नी ।।
वक्षःस्थलं स्थलचरी हृदयं धरित्री कुशिद्वयं त्ववतु नः क्षणदाचरघ्नी ।।।।
अव्यात्सदा दरदरीं जगदीश्वरी नो नाभिं नभोगतिरजात्वथ पृष्ठदेशम् ।।
पायात्कटिं च विकटा परमास्फिचौ नो गुह्यं गुहारणिरपानमपाय हंत्री ।।।।
ऊरुद्वयं च विपुला ललिता च जानू जंघे जवाऽवतु कठोरतरात्र गुल्फौ।।
पादौ रसातलचरांगुलिदेशमुग्रा चांद्री नखान्त्पदतलं तलवासिनी च ।।।।
गृहं रक्षतु नो लक्ष्मीः क्षेत्रं क्षेमकरी सदा ।।
पातु पुत्रान्प्रियकरी पायादायुः सनातनी ।। ।।
यशः पातु महादेवी धर्मं पातु धनुर्धरी ।।
कुलदेवी कुलं पातु सद्गतिं सद्गतिप्रदा ।। ।।
रणे राजकुले द्यूते संग्रामे शत्रुसंकटे ।।
गृहे वने जलादौ च शर्वाणी सर्वतोऽवतु ।।।।
इति स्तुत्वा जगद्धात्रीं प्रणेमुश्च पुनःपुनः ।।
सर्वे सवासवा देवाः सर्षिगंधर्वचारणाः ।।।।
ततस्तुष्टा जगन्माता तानाह सुरसत्तमान् ।।
स्वाधिकारान्सुराः सर्वे शासतु प्राग्यथायथा ।।।।
तुष्टाहमनया स्तुत्या नितरां तु यथार्थया ।।
वरमन्यं प्रदास्यामि तच्छृणुध्वं सुरोत्तमाः ।। ।।
दुर्गोवाच ।। ।।
यः स्तोष्यति तु मां भक्त्या नरः स्तुत्यानया शुचिः ।।
तस्याहं नाशयिष्यामि विपदं च पदे पदे ।।।।
एतत्स्तोत्रस्य कवचं परिधास्यति यो नरः ।।
तस्य क्वचिद्भयं नास्ति वज्रपंजरगस्य हि ।।।।
अद्यप्रभृति मे नाम दुर्गेति ख्यातिमेष्यति ।।
दुर्गदैत्यस्य समरे पातनादति दुर्गमात् ।।।।
ये मां दुर्गां शरणगा न तेषां दुर्गतिः क्वचित् ।।
दुर्गास्तुतिरियं पुण्या वज्रपंजरसंज्ञिका ।।।।
अनया कवचं कृत्वा मा बिभेतु यमादपि ।।
भूतप्रेतपिशाचाश्च शाकिनीडाकिनी गणाः।।।।
झोटिंगा राक्षसाः क्रूरा विष सर्पाग्नि दस्यवः ।।
वेतालाश्चापि कंकाल ग्रहा बालग्रहा अपि।।।।
वातपित्तादि जनितास्तथा च विषमज्वराः ।।
दूरादेव पलायंते श्रुत्वा स्तुतिमिमां शुभाम् ।।।।
वज्रपंजर नामैतत्स्तोत्रं दुर्गाप्रशंसनम् ।।
एतत्स्तोत्रकृतत्राणे वज्रादपि भयं नहि ।। ।।
अष्टजप्तेन चानेन योभिमंत्र्य जलं पिबेत् ।।
तस्योदरगतापीडा क्वापि नो संभविष्यति।।।।
गर्भपीडा तु नो जातु भविष्यत्यभिमंत्रणात् ।।
बालानां परमा शांतिरेतत्स्तोत्रांबुपानतः ।।।।
यत्र सान्निध्यमेतस्य स्तवस्येह भविष्यति ।।
एतास्तु शक्तयः सर्वा सर्वत्र सहिता मया ।। ।।
रक्षां परिकरिष्यंति मद्भक्तानां ममाज्ञया ।।
इति दत्त्वा वरान्देवी देवेभ्यो तर्हि ता तदा ।। ।।
तेपि स्वर्गौकसः सर्वे स्वंस्वं स्वर्गं ययुर्मुदा ।। ।।
देवी स्तुति सुनकर बहुत प्रसन्न हुई और माता ने देवता को अभयदान दिया और कहा जिस स्तुति से तुमने मेरी स्तुति की है वह वज्रपञ्जर (वज्रपंजर) नामकी स्तुति होगी और कोई किसी विपत्ति में रहेगा और इस स्तुति का पाठ करेगा उसके समस्त कष्ट क्षण भर में समाप्त हो जांयेंगे और दुर्ग असुर को मारने के कारण आज से मेरा नाम दुर्गा होगा और जो मेरे शरण में आएगा उसकी कभी दूर्गति नहीं होगी ऐसा वरदान देकर देवी अंतर्धान हो गयी और देवता अपने अपने लोक चले गए |इस प्रकार पारवती जी का नाम दुर्गा देवी पड़ा, काशी में अष्टमी , चतुर्दशी, मंगलवार एवं नवरात्र में दुर्गा देवी का दर्शन अवश्य करना चाहिए | काशी में दुर्गा जी अपनी शक्तियों के साथ सब ओर से काशीवासियों की रक्षा करती है जो इस प्रकार है;
नवशक्ति –
क्रम | देवियो के नाम | वर्तमान स्थान | काशी दिशा की स्वामी |
1 | शतनेत्रा | पूर्व | |
2 | सहस्त्रा | अग्निकोण | |
3 | अयुतभुजा | दक्षिण | |
4 | अश्वारुढा | जैतपुरा वागीश्वरी देवी | नैऋत्य कोण |
5 | गजास्या | पश्चिम | |
6 | त्वरिता | रविन्द्रपुरी लेन न. ५ | वायव्यकोण |
7 | शववाहिनी | देवनाथपूरा शवशिवा | उत्तर |
8 | विश्वा | विशालाक्षी के सामने विश्वभुजा के नाम से | ईशानकोण |
9 | सौभाग्यगौरी | बांसफाटक आदिविश्वनाथ में | मध्य में |
और इसीप्रकार से देवी के अष्टभैरव (देवी के भैरव गण) भी काशी में स्थित हुए –
क्रम | भैरव के नाम | वर्तमान स्थान | काशी दिशा की स्वामी |
1 | रुरु भैरव | हनुमानघाट | पूर्व |
2 | चण्डभैरव | दुर्गा जी काली जी के मंदिर में | अग्निकोण |
3 | असिताङ्गभैरव | महामृत्युंजय मंदिर में | दक्षिण |
4 | कपालभैरव | अलईपुर लाटभैरव के नाम से | नैऋत्य कोण |
5 | क्रोधभैरव | बटुकभैरव में आदिभैरव के नाम से
| पश्चिम |
6 | उन्मत्तभैरव | पंचक्रोशी में | वायव्यकोण |
7 | संहार भैरव | गायघाट पाटनदरवाजा | उत्तर |
8 | भीषणभैरव | भूतभैरव कोतवाली थाने में | ईशानकोण |
इसी प्रकार उनके वेताल भी काशी में आकर स्थित हुए
विद्युज्जिह्वा | क्रूरास्य | लोलज्जिह्वा | क्रूरलोचन | उग्र | विकटदंष्ट्रा | वक्रासय | वक्रनासिक |
जृम्भक | जृभक | ज्वालानेत्र | वृकोदर | गर्त नेत्र | महानेत्र | तुच्छनेत्र | अत्रमंडन |
ज्वालाकेश | कंबुशिर | खर्व ग्रीव | महाहनुः | महानाश | लंबकर्ण | कर्णप्रावरण | अनस |
स्कन्द जी कहते है इसप्रकार दुर्गा जी के सहित उनकी नवशक्ति , अष्टभैरव एव वेताल सभ काशी में समस्त दिशाओ में स्थित हुए इनका दर्शन पूजन करने से महान विघ्न समाप्त हो जाते है |नाम स्मरण भी अनेको विघ्न बाधाओं को दूर करता है |
इसप्रकार आज हमने काशी में देवी माहात्म्य को पढ़ा कल ॐ कारेश्वर लिंग के उत्पन्न होने की कथा को पढ़ेंगे
जय माता दी
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